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गाथा - १८
मुमुक्षु - वह आठवें में होता है।
उत्तर - यहाँ श्रावक को आठवाँ कहाँ था ?
मुमुक्षु - मुनि को सातवें में होता है।
उत्तर - मुनि का इसे कहाँ कोई भान है ?
यहाँ तो निर्वाण अर्थात् आत्मा ही निर्वाणस्वरूप है। क्या कहा ? भगवान आत्मा ही मोक्षस्वरूप है। वह तो स्वयं है। अब उसे मोक्षस्वरूप का साधन स्वयं में है, वह कैसे नहीं कर सकता ? समझ में आया ? आत्मा का स्वभाव त्रिकाल है। एक समय का विकार, वह छोड़कर - वह हेय है, वह हेय है और पूरा स्वरूप अखण्डानन्द पूर्ण प्रभु अनन्त गुणका पिण्ड, वह उपादेय है - ऐसा स्वरूप तो स्वयं का है। स्वयं का ऐसा स्वरूप है और स्वयं का काम वह गृहस्थदशा में न कर सके - ऐसा कैसे हो सकता है ? समझ में आया ? शशीभाई ! समझे? उपादेय; आत्मा स्वयं चीज है, अनन्त आनन्दगुण का पिण्ड है। अ वह स्वयं है, वह उपादेय है - ऐसा कैसे नहीं कर सकता ? रतिभाई ! यह सूक्ष्म बात है । नजदीक की बात ( है ) - ऐसा कहते हैं ।
गृहस्थाश्रमी आत्मा है या नहीं ? इस गृहस्थाश्रमी को भी आत्मा है या नहीं ? तो आत्मा है, वह अपना स्वभाव शुद्ध रखकर पड़ा है। वीतरागस्वरूप और आत्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है - ऐसा अपना स्वरूप है । उसका उपादेयपना ग्रहण करके और उसका साधन भी उसमें है; उसका साधन कोई बाह्य क्रिया में या राग में नहीं है। समझ में आया ? वस्तु स्वयं अनन्त आनन्दादि शुद्ध है । उसे उपादेयरूप से ग्रहण करके साधन भी (उसमें है)। राग को दूर से ( छोड़कर).... रागादि विकल्प और परवस्तु दूर ( है ) । वह दूर जो चीज है, वह साधन नहीं है। इसमें है, वह साधन है । आहा... हा... ! समझ में आया ? मनसुखभाई! यह दुकान- बुकान, धन्धा उसके घर रहे - ऐसा कहते हैं । यह रागादि हो परन्तु उसके घर.... रागादि हेयरूप वर्तते हैं। इसके अन्तर में शुद्ध परमात्मा... मैं शुद्ध आनन्द हूँ - ऐसी वस्तु जो है, उसे उपादेय (करके) 'यही मैं हूँ' - ऐसा मानना, उसका नाम उपादेय (है)। समझ में आया ? अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त बल - ऐसा मेरा आत्मा का स्वरूप है। वीतराग के स्वरूप और मेरे स्वरूप में