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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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-गृहस्थाश्रम का व्यापार-धन्धा होने पर भी, हेयाहेउ मुणंति – छोड़ने योग्य क्या है और आदर योग्य क्या है ? – इसका उसे ज्ञान होता है। क्या कहा समझ में आया ? गृहस्थाश्रम में रहा होने पर भी, उसके ज्ञान में गृहस्थाश्रमी को धर्म होता है, किस प्रकार ? कि य अर्थात् पुण्य-पाप का राग उत्पन्न होता है, व्यापार-धन्धे का या पूजा, भक्तिभाव का परन्तु वह हेय है - ऐसा ज्ञान उसे वर्तना चाहिए। समझ में आया ? है ?
मुमुक्षु - किसे वर्तना चाहिए ?
उत्तर
गृहस्थ को ।
मुमुक्षु सम्यग्दृष्टि को या मिथ्यादृष्टि को ?
उत्तर - मिथ्यादृष्टि की यहाँ कहाँ बात है ? हेयाहेय का ज्ञान सम्यग्दृष्टि को (वर्तता है) । यहाँ तो गृहस्थाश्रम में धर्म हो सकता है और मोक्ष के मार्ग में चल सकता है यह बात यहाँ सिद्ध करनी है। ऐसा नहीं है कि गृहस्थाश्रम में अपने से कुछ नहीं किया जा सकता, हम कुछ नहीं कर सकते; यह तो मुनि हो – त्यागी हो, उसे होता है - ऐसा नहीं है ।
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मुनि, उग्ररूप से अन्तर के आनन्द के पुरुषार्थ से बारम्बार अतीन्द्रिय का आनन्द लेते और शीघ्ररूप से मोक्ष का उत्कृष्ट साधन करते हैं । उत्कृष्ट साधन करते हैं । गृहस्थाश्रम में उसके योग्य आत्मा का उपादेयपना... आया न ? हेय - उपादेय । गृहस्थाश्रम में हो, धन्धे में हो, फिर भी उसे प्रत्येक क्षण रागादि, पुण्यादि, पापादि भाव, वे हेय हैं; परवस्तु – शरीरादि की क्रिया होती है, उनका मैं कर्ता नहीं हूँ - ऐसा उसे सम्यग्दृष्टि को प्रतिक्षण ज्ञान वर्तता है । पाप के, पुण्य के भाव भी आयें, देह की क्रिया हो ( परन्तु) उन सबको हेयरूप जानता है। समझ में आया ? और उपादेयरूप से त्याग ।
हेय और उपादेय को - त्यागने योग्य और ग्रहण करनेयोग्य को जानता है । यह आत्मा शुद्ध चैतन्य परमानन्द की मूर्तिस्वरूप है; वही मुझे आदरणीय और ध्यान करने योग्य है - इस प्रकार गृहस्थाश्रम में सम्यग्दृष्टि इस तरह वर्तन कर सकता है । कहो, समझ में आया इसमें? कितने ही कहते हैं - गृहस्थाश्रम में यह अनुभव और आत्ममार्ग नहीं होता। यहाँ तो गृहस्थाश्रम में निर्वाणमार्ग होता है - ऐसा कहते हैं ।