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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) नहीं आता। कल दोपहर में बहुत बात होती थी। कहा, यह कुछ समझते नहीं। पूरी बात ही अन्तर है। लोगों ने बात ही नहीं सुनी। समझ में आया? आहा...हा...! मार्गणा व गुणस्थान आत्मा नहीं हैं मग्गणगुणठाणइ कहिया ववहारेण वि दिट्ठी। णिच्छइणइ अप्पा मुणहु जिय पावहु परमेट्ठिी॥१७॥ गुणस्थान अरु मार्गणा, कहें दृष्टि व्यवहार। निश्चय आतमज्ञान जो, परमेष्टी पदकार॥ अन्वयार्थ – (ववहारेण वि दिट्ठी ) केवल व्यवहारनय की दृष्टि से ही ( मग्गणगुणठाणइ कहिया) जीव को मार्गणा व गुणस्थान कहा है ( णिच्छइणइ) निश्चयनय से (मुणहु) अपने आत्मा को आत्मारूप ही समझा (जिय परमेट्ठि पावहु) जिससे तू सिद्ध परमेष्ठी के पद को पा सके। १७ वी गाथा में कहते हैं – मार्गणा व गुणस्थान आत्मा नहीं हैं। देखो! आहा...हा...! मग्गणगुणठाणइ कहिया ववहारेण वि दिट्ठी। णिच्छइणइ अप्पा मुणहु जिय पावहु परमेट्ठिी॥१७॥ भगवान सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा दिव्यध्वनि द्वारा फरमाते हैं। उसी प्रकार सन्त स्वयं विकल्प द्वारा यह लक्ष्य में आयी है, वह बात वाणी द्वारा आ जाती है, आ जाती है। कहते हैं – ववहारेण वि दिट्ठी। केवल व्यवहारनय की दृष्टि से ही.... यह जीव किस गति में है और किस लेश्या में है और भव्य-अभव्य है, ज्ञान हुआ, ज्ञान की पर्याय है – ऐसे सब भेदों को जानना, वह व्यवहारनय का विषय जानने योग्य है। समझ में आया? आदरणीय नहीं। आहा...हा...!
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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