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गाथा-१६
सम्यग्दर्शन में अभाव है। इसके सम्यग्दर्शन बिना दूसरे को सम्यग्दर्शन माने, उसे मिथ्यादर्शन की पर्याय होती है। समझमें आया?
__ णिच्छह एहउ जाणि 'योगीन्द्रदेव', योगीन्द्रदेव आदेश करते हैं। हे आत्मा! निश्चय से, यथार्थ से, सत्य स्वरूप से.... निश्चय अर्थात् सत्य स्वरूप से इस प्रकार है - ऐसा तू जान, ऐसा तू जान । बाकी सब विकल्पादि हों, उन्हें व्यवहार और निमित्तरूप जान। समझ में आया? अद्भुत मार्ग, भाई! लोगों को अभी तो ऐसा हो गया है, इस सम्यग्दर्शन के बिना त्याग और व्रत वे सब अंक बिना की शून्य है – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? जिसे अभी सम्यग्दर्शन कैसे हो, इसका भी पता नहीं होता... सम्यग्दर्शन की भूमिका कैसी होती है ? उसका भी पता नहीं होता और व्रत, तप, और चारित्र और व्रत ले लिये। एक बिना के.... रण में चिल्लाने जैसा है, वह सब । समझ में आया?
अन्य कुछ भी मोक्षमार्ग नहीं है.... देखो! इनने अर्थ भी किया है न? कुछ भी मोक्षमार्ग नहीं है.... दूसरा मोक्षमार्ग जरा भी नहीं है । आहा...हा...! रागादि का व्यवहार का भाव, व्यवहार श्रद्धा का या शास्त्र के ज्ञान का या कोई कषाय की मन्दता का व्रतादि का, वह भाव किंचित् छूटकारे का मार्ग नहीं है; वह तो बन्धन का मार्ग है। समझ में आया? ऐसा जान। निश्चय से तू ऐसा ही जान.... ऐसा। निश्चय अर्थात् सत्य स्वभाव की स्थिति से ऐसा तू जान। सत्य स्वरूप के स्वभाव से ऐसा तू जान । व्यवहार का स्वरूप दूसरा भेद आदि है, वह जाननेयोग्य है परन्तु आदरणीय नहीं। कहो, समझ में आया? देखो, अन्दर इन्होंने थोड़ा-थोड़ा अर्थ किया है।
व्यवहार धर्म का सर्व आचरण मन, वचन, काया के आधीन है। इसलिए पराश्रय है.... इसमें आपत्ति नहीं। समझ में आया? और जो कुछ स्व आश्रय से - आत्मा के आश्रय से है (उसके) आधीन, वही उपादान है। बाकी सब निमित्त कहा जाता है परन्तु उस निमित्त में लोग भूलते हैं परन्तु वह निमित्त अर्थात् जहाँ उपादान का अन्तर दर्शन हुआ तब वहाँ रागादिक का संयोग जो व्यवहार है, उसे निमित्तरूप से कहा जाता है। विरुद्धरूप से बंध कहा जाता है, अनुकूलरूप से निमित्त कहा जाता है – ऐसा है। आहा...हा...! कठिन काम, भाई!