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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) में तीनों आ जाते हैं। आहा...हा...! समझ में आया? अभी यह सब विवाद निकालते हैं न? चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण नहीं होता... विद्वानों में बड़ी चर्चा चलती है। एक व्यक्ति कहे होता है, दूसरा कहे नहीं होता। आहा...हा...! ऐसा अभी पता नहीं पड़ता। अभी सम्यग्दर्शन में स्वरूपाचरण नहीं होता - ऐसी बातें करते हैं। आहा...हा...! भगवान आत्मा अपने अन्तर्मुख के स्वभाव की ओर ढला और प्रतीति व ज्ञान हुआ उतना ही उसमें अनन्तानुबन्धी का भी अभाव होकर, स्वरूप की रमणता का इतना आचरण प्रगट हुए बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता। समझ में आया? क्योंकि उसे अन्तरात्मा कहा है। बहिरात्मा जो था, वह पुण्य-पाप, विकल्प और निमित्त में अपनेपन का अस्तित्व स्वीकार करता था, उसे अखण्डानन्द प्रभु अनन्त गुण का पिण्ड उसके अस्तित्व का स्वीकार, उस स्वीकार में अन्तर रमणता आये बिना स्वीकार नहीं हो सकता। अन्तर आत्मा.... अन्तर आत्मा अर्थात् क्या? अन्तर आत्मा... परमात्मस्वरूप त्रिकाली द्रव्यस्वरूप अपना, उसका अनुभव होना, दृष्टि होना, उसका नाम अन्तरात्मा है तो कुछ आत्मा में अन्तर में परमात्मस्वरूप अपना है, उसमें कुछ स्थिर हुआ तब उसे अन्तर आत्मा कहने में आया है। पूर्ण स्थिर हो तो परमात्मा हो जाये। अकेला राग में स्थिर - एकाकार (होवे तो) वह बहिरात्मा है। समझ में आया? अद्भुत सूक्ष्म बात ! इसमें कहीं, क्या कहना है ? और क्या करना है ? सुना न हो तो पकड़ना कठिन पड़ता है। यह कहीं वीतराग का मार्ग ऐसा होगा? ऐसा मार्ग लोगों ने दबोच दिया है न! समझ में आया? परमेश्वर तीन लोक के नाथ सीमन्धर भगवान आदि तीर्थंकर जो कहे हैं, वे भगवान विराजते हैं। सभी एक ही यह बात अनादि तीर्थंकर कहते हैं, अभी कहते हैं, भविष्य में अनन्त काल में अनन्त तीर्थंकर यह कहेंगे। समझ में आया? आहा...हा...! मोक्खह कारण जोईया इस मोक्ष का कारण तो एक ही है। आहा...हा...! एकान्त नहीं हो जाता? सम्यग्दर्शन को मोक्ष का कारण कहने से एकान्त नहीं हो जाता? भाई! इसमें अनेकान्त रहता है। स्वरूप की दृष्टि, स्वरूप का ज्ञान और स्वरूपाचरण तीनों इकट्ठे हैं और उसमें विकल्पादि के भाव का नास्तिभाव है। समझ में आया? जिसे व्यवहार रत्नत्रय कहते हैं. या व्यवहार समकित कहते हैं, वह तो राग है। उसका इस निश्चय
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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