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गाथा-१६
अप्पा सण इक्क शब्द पड़ा है, देखो! तीन शब्द हैं। एक आत्मा अर्थात् कि एक समय में पूर्ण चिदानन्द अभेद वस्तु को आत्मा कहते हैं । उसका दर्शन । अप्पा – यह द्रव्य है; दर्शन – यह पर्याय है। समझ में आया कुछ? भगवान अभेद चैतन्यवस्तु आत्मा को आत्मद्रव्य कहते हैं । अभेद एकाकार, वह द्रव्य । दसण उसकी श्रद्धा, अनुभव में प्रतीति, उसे पर्याय कहते हैं। वह अप्पा दंसण इक्क - यह सम्यग्दर्शन एक है। ऐसे तीन शब्द हुए। समझ में आया? जयन्तीभाई नहीं आये? कहो, समझ में आया इसमें? आहा...हा...!
अप्पा दंसण इक्क और इस आत्मदर्शन के बिना जितने क्रियाकाण्ड में धर्म मनाये, वह मिथ्यादर्शन की पर्याय है। हैं ? भगवान आत्मा एक समय में पूर्ण अभेद अनन्त गुण का एकरूप, उसकी अन्तर में स्वसन्मुख की प्रतीति के भाव को दर्शन कहते हैं । इस सम्यग्दर्शन के प्रकाश के अभाव में जितने पुण्यादि-दया, दान, व्रत, भक्ति के परिणाम हैं, वे धर्म हैं - ऐसा माननेवाले को मिथ्यादर्शन है।
मुमुक्षु – सम्यग्दर्शन होने के बाद माने?
उत्तर – सम्यग्दर्शन होने के बाद तो माने ही नहीं वह। माने वह तो व्यवहार बीच में आता है। मन-वचन की चेष्टा की क्रियाएँ बीच में आती है, व्यवहार; परन्तु वह व्यवहार बन्ध का कारण है और अनुकूलता कहें तो उस अन्तर अनुभव की दृष्टि में उसे निमित्त कहा जाता है। अनुकूलता से कहें तो निमित्त, प्रतिकूलता से कहें तो बन्ध का कारण। चन्दुभाई! क्या कहा यह ? कि भगवान आत्मा एक समय में जिसे आत्मा कहते हैं; यहाँ पहले शब्द का अर्थ है । एक रूप प्रभु अभेद चैतन्य ज्योत का दर्शन, उसकी प्रतीति, उसके अन्तर अनुभव में यह आत्मा' - ऐसी श्रद्धा; उस श्रद्धा के अतिरिक्त कोई भी विकल्पादि उत्पन्न हो और हों, उसे धर्म मानना या दूसरी बात को सम्यग्दर्शन मानना – इसका नाम मिथ्यादर्शन का प्रकाश है – मिथ्यादर्शन पसरा (व्याप्त) है। समझ में आया?
परु अण्णु ण किं पि वियाणि भगवान आत्मा, उसका सम्यग्दर्शन, उसका अनुभव एक ही दर्शन (है); दूसरा कोई दर्शन है ही नहीं। दूसरा कोई मार्ग नहीं है, दूसरा कोई दर्शन नहीं है, दूसरी कोई मोक्ष के मार्ग की अनुकूलता की रीति नहीं है। समझ में आया? ऐसे दर्शन के अतिरिक्त परु... परु है न? आत्मा के दर्शन के अतिरिक्त परु