________________
योगसार प्रवचन (भाग-१)
१०७ - एक ही सम्यग्दर्शन है। दो सम्यग्दर्शन नहीं है, दो मार्ग नहीं है; इसके अतिरिक्त दूसरा सब मिथ्यादर्शन है। समझ में आया?
अप्पा दंसण इक्क – बहुत संक्षिप्त में कहा है। जिसे आत्मा कहते हैं; आत्मा कहें, तब दूसरी चीजें हैं । अजीव है; मन-वचन-काय की चेष्टाएँ अजीव की पर्याय है; अन्दर पुण्य-पाप का विकल्प और राग, (जिसका) आत्मा में अभाव है, ऐसी चीज है। मन-वचन और काया, जिसके विकल्प के विचार के समय मन भी है, वाणी से कहते हैं, वह सुनने का (होता है), वह भी है, परन्तु वे सब आत्मदर्शन में काम नहीं करते। समझ में आया?
अप्पा – यह आत्मा अर्थात् परमात्मा पूर्ण स्वरूप। उसका दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन; एक ही सम्यग्दर्शन है। देखो! कोई कहते हैं न कि सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है, ज्ञान दो प्रकार का है, चारित्र दो प्रकार का है। (तो कहते हैं कि) नहीं; दो प्रकार के हैं ही नहीं। सम्यग्दर्शन का कथन भले ही व्यवहार और निश्चय से (-ऐसे) दो प्रकार से आवे (परन्तु) वस्तु एक ही निश्चय, वह सम्यग्दर्शन है; दूसरा सम्यग्दर्शन नहीं। समझ में आया? भाषा समझ में आती है न? भैया ! मिश्रीलालजी ! थोड़ी-थोड़ी समझ लेना। इन्दौरवालों को तो थोडा गजराती का अभ्यास है... थोडा-थोडा। आहा...हा...!
यह शब्द तो पड़ा है न? अप्पा दंसण इक्क। योगीन्द्रदेव सन्त मुनि-दिगम्बर मुनि महा धर्मात्मा छठवीं-सातवीं भूमिका-गुणस्थान में झूलनेवाले! अनादि सनातन वीतराग मार्ग में अन्तर शान्ति की जिन्हें उत्पत्ति हुई है (अर्थात्) चारित्र; ऐसे सन्त ऐसा कहते हैं - आत्मा का दर्शन, वह एक ही सम्यग्दर्शन है। नव तत्त्व की श्रद्धा, वह सम्यग्दर्शन नहीं; भेदवाली श्रद्धा, वह सम्यग्दर्शन नहीं; देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा, वह सम्यग्दर्शन नहीं; छह द्रव्य की श्रद्धा, वह सम्यग्दर्शन नहीं । शशीभाई ! है ? किसी दिन भी निवृत्त हो तब न! सुनने के लिए निवृत्त नहीं, समझने को निवृत्त नहीं। यह शान्तिभाई रात्रि को पुकार तो करते थे, कहाँ गये शान्तिभाई? हैं ? गये? ठीक! कहो, समझ में आया? निवृत्त होवे, निवृत्त – ऐसा शाम को कहते थे परन्तु निवृत्त कहाँ? यह सुनने को अभी निवृत्ति नहीं मिलती। फुरसत... फुरसत...!