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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
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अर्थात् पर... पर... पर.... चाहे तो देव - शास्त्र - गुरु की श्रद्धा का राग (हो), नव तत्त्व की श्रद्धा के भेद का राग (हो), षट् द्रव्य की श्रद्धा का राग (हो), वह सब परु अण्णु । पर.... आत्मा के स्वभाव से अन्य ऐसी दो बातें कही। समझ में आया कुछ ? अन्य, पर ऐसा ।
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आत्मा के अभेदस्वभाव की दृष्टि से अन्य जितना पर है, वह ण किं पि वियाणि • मोक्षमार्ग नहीं जानना । उसे जरा भी मोक्षमार्ग नहीं मानना । आहा... हा... ! समझ में आया इसमें ? एक, इससे अन्य को जरा भी सम्यग्दर्शन नहीं मानना । शुभराग में, देह की क्रिया में या किसी भी नवतत्त्व की श्रद्धा के राग में सम्यग्दर्शन अथवा मोक्ष का मार्ग जरा भी - थोड़ा भी दूसरे में इसके अतिरिक्त है नहीं । अण्णु ण किं पि वियाणि जरा भी, आत्मा के दर्शन के सिवाय, दूसरा मार्ग, उसमें दर्शन और मोक्ष का मार्ग जरा भी नहीं है । मनसुखभाई ! आहा...हा... ! ऐ...ई... ! हिम्मतभाई ! समझ में आता है या नहीं ? देखो ! यह सब धीरे-धीरे यह सुनने आनेवाले हो गये हैं। आहा... हा... ! अरे ... ! भाई ! सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ परमेश्वर वीतरागदेव के मुख में से निकली हुई दिव्यध्वनि ... परमेश्वर त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ की वाणी में आया, ऐसा सन्तों ने चारित्रसहित अनुभव किया। यहाँ योगीन्द्रदेव मुनि हैं न ? उन्होंने जगत के समक्ष यह रखा कि वस्तु का स्वरूप यह है। समझ में आया ?
अप्पा दंसण इक्क, दो नहीं; और दूसरा अन्य जो कुछ है, वह कोई भी मोक्षमार्ग में गिनने में नहीं आता अथवा दूसरी मिथ्या बात को, ऐसी श्रद्धा के अतिरिक्त किसी दूसरी बात से श्रद्धा माने, उसे मिथ्यादर्शन होता है। समझ में आया ? यह तो अभी पहली - ईकाई की बात है। जैन सम्प्रदाय में जन्में परन्तु जैन परमेश्वर त्रिलोकनाथ केवलज्ञानी क्या कहते हैं ? - उसका पता नहीं पड़ता; पता नहीं पड़ता और जिन्दगी गँवाये और हो गया हम कुछ धर्म करते हैं । रतिभाई ! हैं ? ऐसा ही है। लो ! दो-दो घण्टे वहाँ पढ़े परन्तु समझे नहीं, फिर चलो थोड़ा वहाँ जाएँ। उसमें कोई बात ठीक से पकड़ में नहीं आती। चलो, अब पूरा हो जाएगा। आहा... हा...!
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परू अण्णु ण किंपि वियाणि जरा भी, आत्मा के अनुभव की दृष्टि अतिरिक्त सम्यग्दर्शन दूसरी किसी चीज में नहीं हो सकता; किसी चीज द्वारा नहीं हो