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योगसार प्रवचन ( भाग - १ )
अन्तिम में अन्तिम नौंवे ग्रैवेयक गया । तेसे असेसु शुभ परिणाम जिसे हुए परन्तु वे सब बंध
कारण हैं । इस आत्मा के भान बिना वह अकेला पुण्य मुक्ति का कारण नहीं है । आत्मा के भानरहित होवे तो उसे वह निमित्त कहा जाता है। निमित्त कहा जाता है अर्थात् वह कारण है नहीं । आहा... हा... ! समझ में आया ?
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आत्मा अपने निज स्वरूप को.... अहो ! शुद्ध स्वरूप का भण्डार भगवान... अरे... ! उसका इसे पता नहीं होता । अन्तर्मुख में, अन्तर्मुख में गहरा भगवान पूर्णानन्द लेकर पड़ा है, उसका जिसे विश्वास, उसका ज्ञान, उसे ज्ञेय बनाया नहीं, वह जीव अशेष कर्म - चाहे जिस प्रकार के पंच महाव्रत के, अट्ठाईस मूलगुण के, बारह - बारह महीने के अपवास (करे), छह-छह महीने के अपवास (करे) और भिक्षा के लिये जाये तो एक मुरमुरा और पानी.... ममरा कहते हैं ? क्या कहते हैं ? मुरमुरा । हाँ, वह धानी, चावल की धानी, हमारे यहाँ उसे ममरा कहते हैं और धानी कहते हैं । ज्वार को। ज्वार की बनाते हैं न ? ज्वार, हाँ वह चावल की धानी... वह मुरमुरा और पानी ले... भगवान आत्मा ज्ञातादृष्टा एक राग की क्रिया का कर्ता नहीं - ऐसा जिसे चैतन्य का अन्तरज्ञान, विश्वास, स्थिरता नहीं है, वह ऐसे अशेष पुण्यकर्म करे तउ वि णु पावइ सिद्धसुहु तो भी वह मुक्ति के सुख को प्राप्त नहीं करता। अर्थात् उसे संवर निर्जरा नहीं होती – ऐसा कहते हैं ।
वह संवर निर्जरा कब है ? वह तो निमित्त है । निमित्त कब कहलाता है ? शुद्ध उपादान अपनी शुद्ध स्वभाव की पूर्णानन्द की श्रद्धा - ज्ञान और स्थिरता के स्वभाव शुद्ध उपादान से प्रगट किया तो इन व्रतादि के परिणाम बन्ध का कारण है, उसे निमित्तरूप कहा जाता है । है बंध का कारण । समझ में आया ? निमित्त देखकर बात की है, उसे लगा है मूर्ख । आहा...हा... !
अह पुण अप्पा ण वि मुणहि जिसने भगवान आत्मा चैतन्यरत्न कन्द प्रभु की जिसने कीमत नहीं की... अरे ! जिसने आत्मा के स्वभाव की वर्तमान कीमत नहीं की, वे जीव पुण्य के परिणाम की कीमत करके दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, जप के भाव करके, उनकी कीमत करके उनसे हमारा कल्याण होगा... कहते हैं कि पुणु पुणु भमेइ, पुणु संसार भमेसु चार गति में भटकेगा और जन्म-मरण के अन्त का कोई भी लाभ नहीं होगा,