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गाथा-१५
निज रूप के जो अज्ञ जन, करे पुण्य बस पुण्य।
तदपि भ्रमत संसार में, शिव सुख से हो शून्य॥ अन्वयार्थ – (अह पुणु अप्पा ण वि मुणहि) यदि तू आत्मा को नहीं जानेगा ( असेसु पुण्णु वि करइ) सर्व पुण्य कर्म को ही करता रहेगा (तउ वि सिद्धसुहु ण पावइ) तो भी तू सिद्ध के सुख को नहीं पावेगा (पुणु संसार भमेसु) पुनः पुनः संसार में ही भ्रमण करेगा।
पुण्यकर्म मोक्षसुख नहीं दे सकता।
अह पुणु अप्पा ण वि मुणहि पुण्णु वि करइ अससु। तउ वि णु पावइ सिद्धसहु पुणु संसार भमेसु॥१५॥
अह पुणु अप्पा ण वि मुणहि जो कोई आत्मा अपना शुद्ध आनन्दस्वरूप का ज्ञान और विश्वास नहीं करता और इसके अतिरिक्त सर्व पुण्य.... भाषा देखो। असेसु पुण्णु अशेष पुण्य अर्थात् कि समस्त प्रकार के तेरे दया के, दान के, भक्ति के, व्रत के, साधु के आचरण के और पंच महाव्रत के, बारह व्रत के जितने आचरण तू कहता है, वे सब ।असेसु पुण्णु वि करइ जितने शुभभाव के आचरण उत्कृष्ट में उत्कृष्ट कहलाते हैं ऐसे सब दया, दान, व्रत, भक्ति, तप, पूजा, श्रावक, साधु के आचरण... समझ में आया? परन्तु वे साधक-फादक है नहीं। हैं?
मुमुक्षु – बाहर में दिखता है न?
उत्तर – बाहर में क्या दिखता है ? लोग तो मूर्ख हों तो कहते हैं। कहो, समझ में आया? देखो न ! क्या शब्द है ? देखो!
अह पुणु अप्पा ण वि मुणहि पुण्णु वि करइ असेसु। देखो !! असेसु है न? अर्थात् ? असेसु अर्थात् क्या कहते हैं ? पंच महाव्रत के परिणाम, अट्ठाईस मूलगुण के परिणाम, आजीवन ब्रह्मचर्य, शरीर से ब्रह्मचर्य रखने के परिणाम, आजीवन एक लंगोटी भी नहीं रखने के परिणाम ऐसे यहाँ असेसु है न? बाह्य चीज का इतना अधिक त्याग कि