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गाथा-१५
कहो, समझ में आया इसमें ? कहो, मनसुखभाई! क्या तुम्हारे वहाँ चले, है या नहीं हिन्दुस्तान के साथ? हिन्दुस्तानी वे कुछ कहें, यह फिर कुछ कहे, दोनों अन्दर में चलते हैं। एक मन्दिर में दो। समझ में आया? क्या (कहा)? है या नहीं इसमें?
अह पुणु अप्पा ण विमुणहि भगवान आत्मा आनन्दस्वरूप राग से, देह से भिन्न है; जिसका माहात्म्य ज्ञान में पूर्ण नहीं हो सकता – ऐसा जो परमात्मा का निज स्वभाव, उसे जो नहीं जानता, वह पुण्णु वि करई असेसु। भले वह शुभभाव असेस – समस्त प्रकार के, हाँ! बारह-बारह महीने के उपवास करे, घी न खाये, दूध न पीये, परस्त्री का त्याग, स्वस्त्री का त्याग, रात्रि भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य पालन करे, आजीवन रात्रि भोजन का त्याग, चौ विहार अर्थात् ? चार प्रकार के आहार का त्याग । समझ में आया? रात्रि में नहीं खाये, ये सब क्रियाएँ असेस पुण्यरूप है; इनसे जरा भी धर्म नहीं है। आहा...हा...! कहो, समझ में आया इसमें? लोगों को कठिन पड़ता है, हाँ! अरे... बापू! अनन्त काल से जन्म -मरण के धक्के खाये हैं, भाई!
कहते हैं ऐसा तो भी.... ऐसा। इतना करने पर भी – ऐसा है न? तो भी तू..... ऐसा.... सिद्ध का सुख प्राप्त नहीं कर सकेगा। भगवान आत्मा में आनन्द है, अतीन्द्रिय आनन्द का विश्वास तुझे नहीं और ऐसा पुण्य करके उसका विश्वास करता है कि इसमें से मुक्ति होगी तो भमेइ चार गति में परिभ्रमण करेगा परन्तु सुख नहीं मिलेगा अर्थात् आत्मा के आनन्द की प्राप्ति नहीं होगी। तउ वि सिद्धि सुहु ण पावइ, तो भी सिद्ध का सुख प्राप्त नहीं कर सकेगा।
___ पुणु संसार भमेसु, पुनः-पुनः संसार में ही भ्रमण करेगा.... लो! समझ में आया? आहा...हा...! यह साधक और साध्य, पंचास्तिकाय में आता है न? व्यवहार साधक... परन्तु कहा है न? कहा, किस नय से? नय का यहाँ क्या काम है ? नय का क्या काम है ? अरे... भगवान ! बापू! भाई! ऐसा कि इस व्यवहार को साधक कहा है न? निश्चय साध्य और व्यवहार साधक। भले तुम उसे व्यवहार कहो, चलो... परन्तु व्यवहार को साधक कहा है न? किस नय से? नय का क्या काम? कहा है या नहीं? ऐ...ई...! उन्होंने सब उल्टा किया है लिखकर । टीका प्रमाण कथन व्यवस्थित किया, फिर नीचे