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________________ स्वतंत्रता का उद्घोष जगत में भी जो वस्तु जैसी हो, उससे विपरीत बतलानेवाले को लोग मूर्ख कहते हैं, तो फिर सर्वज्ञ कथित यह लोकोत्तर वस्तु-स्वभाव, जैसा है वैसा न मानकर विरुद्ध मानें तो लोकोत्तर मूर्ख और अविवेकी ही है। विवेकी और विलक्षण कब कहा जाय? वस्तु के जो परिणाम हुये, उसे कार्य मानकर, उसे परिणामी-वस्तु के आश्रित समझे और दूसरे के आश्रित न माने, तब स्व-पर का भेदज्ञान होता है और तभी विवेकी है - ऐसा कहने में आता है। आत्मा के परिणाम पर के आश्रय से नहीं होते। विकारी और अविकारी जो भी परिणाम, जिस वस्तु के हैं, वे उसी वस्तु के आश्रित हैं, अन्य के आश्रित नहीं। पदार्थ का परिणाम, वही उसका कार्य है - यह एक बात । दूसरी बात यह कि वे परिणाम उसी वस्तु के आश्रय से होते हैं, अन्य के आश्रय से नहीं होते - यह नियम जगत के समस्त पदार्थों में लागू होता है। देखो भाई! यह तो भेदज्ञान के लिए वस्तु स्वभाव के नियम बतलाये गये हैं। अब, धीरे-धीरे दृष्टान्त से, युक्ति से वस्तु-स्वरूप सिद्ध किया जाता है। देखो! किसी को ऐसा भाव उत्पन्न हुआ कि सौ रुपये दान में दूँ, उसका वह परिणाम आत्मवस्तु के आश्रित हुआ है। वहाँ रुपये जाने की जो क्रिया होती है वह रुपये के रजकणों के आश्रित हैं, जीव की इच्छा के आश्रित नहीं। अब, उस समय उन रुपयों की क्रिया का ज्ञान, अथवा इच्छा के भाव का ज्ञान होता है, वह ज्ञान परिणाम आत्माश्रित हुआ है - इसप्रकार परिणामों का विभाजन करके वस्त स्वरूप का ज्ञान करना चाहिये। भाई! तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा - ये दोनों परिणाम आत्मा में होते हुये भी जब वे एक दूसरे के आश्रित नहीं है; तो फिर पर के आश्रय की तो बात ही कहाँ रही? दान की इच्छा हुई और रुपये दिये गये, वहाँ रुपयों के जाने की क्रिया भी हाथ के आश्रित नहीं, हाथ का हिलना परिणाम वस्तु का ही होता है इच्छा के आश्रित नहीं, और इच्छा का परिणमन वह ज्ञान के आश्रित नहीं है; सभी अपने-अपने आश्रयभूत वस्तु के आधार से है। देखो! यह सर्वज्ञ के विज्ञान का पाठ है; ऐसा वस्तु-स्वरूप का ज्ञान, सच्चा पदार्थविज्ञान है। जगत के पदार्थों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एकरूप नहीं रहते; परन्तु परिणमन करके नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य किया करते हैं - यह बात चौथे बोल में कही जायेगी। जगत के पदार्थों का स्वभाव ऐसा है कि वे नित्य स्थायी रहे और उनमें प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य, उनके अपने ही आश्रित हुआ करे - वस्तु-स्वभाव का ऐसा ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। (१) जीव को इच्छा हुई, इसलिये हाथ हिला और सौ रुपये दिये गये - ऐसा नहीं है। (२) इच्छा का आधार आत्मा है, हाथ और रुपयों का आधार परमाणु है। (३) रुपये जाने थे, इसलिये इच्छा हुई ऐसा भी नहीं है। (४) हाथ का हलन-चलन, वह हाथ के परमाणुओं के आधार से है। (५) रुपयों का आना-जाना, वह रुपयों के परमाणुओं के आधार से है। (६) इच्छा का होना, वह आत्मा के चारित्रगुण के आधार से है। यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्य के परिणाम की भिन्नता की बात हुई; यहाँ तो उससे भी आगे अन्दर की बात लेना है। एक ही द्रव्य के अनेक परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं - ऐसा बतलाना है। राग और ज्ञान दोनों के कार्य भिन्न हैं, एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं। किसी ने गाली दी और जीव को द्वेष के पाप-परिणाम हुये, वहाँ वे पाप के परिणाम प्रतिकूलता के कारण नहीं हुये और गाली देने वाले के आश्रित भी नहीं हुये; परन्तु चारित्रगुण के आश्रित हुये हैं। चारित्रगुण ने उस समय उस परिणाम के अनुसार परिणमन किया है; अन्य तो निमित्त मात्र हैं। अब, द्वेष के समय, उसका ज्ञान हुआ कि 'मुझे यह द्वेष हुआ' - यह ज्ञान परिणाम, ज्ञानगुण के आश्रित है; क्रोध के आश्रित नहीं है। (6)
SR No.009478
Book TitleSwatantrata ka Udghosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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