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परिणाम वस्तु का ही होता है
स्वतंत्रता का उद्घोष बारम्बार लक्ष में लेकर परिणामों से भेदज्ञान करने के लिये यह बात है।
एक वस्तु के परिणाम अन्य वस्तु के आश्रित तो हैं नहीं; परन्तु उस वस्तु में भी उसके एक परिणाम के आश्रित, दूसरे परिणाम नहीं हैं। परिणामी वस्तु के आश्रित ही परिणाम हैं - यह महान सिद्धान्त है।
प्रतिक्षण इच्छा, भाषा और ज्ञान - ये तीनों एक साथ होते हुए भी इच्छा और ज्ञान जीव के आश्रित हैं और भाषा, वह जड़ के आश्रित हैं। इच्छा के कारण भाषा हुई और भाषा के कारण ज्ञान हुआ - ऐसा नहीं। उसीप्रकार इच्छा के आश्रित ज्ञान भी नहीं।
इच्छा और ज्ञान यह दोनों हैं तो आत्मा के परिणाम; तथापि एक के आश्रित दूसरे के परिणाम नहीं है। ज्ञान परिणाम और इच्छा परिणाम, दोनों भिन्न-भिन्न हैं। ज्ञान, वह इच्छा का कार्य नहीं है और इच्छा, वह ज्ञान का कार्य नहीं है। जहाँ ज्ञान का कार्य इच्छा भी नहीं, वहाँ जड़ भाषा आदि तो उसका कार्य कहाँ से हो सकता है? वह तो जड़ का कार्य है। ___जगत में जो भी कार्य होते हैं। वे सत् की अवस्थाएँ होती हैं; किसी वस्तु के परिणाम होते हैं; परन्तु वस्तु के बिना अधर से परिणाम नहीं होते। परिणामी का परिणाम होता है। नित्य स्थित वस्तु के आश्रित परिणाम होते हैं, पर के आश्रित नहीं होते।
परमाणु में होंठों का हिलना और भाषा का परिणमन - यह दोनों भी भिन्न वस्तुएँ हैं। आत्मा में इच्छा और ज्ञान - ये दोनों परिणाम भी भिन्न-भिन्न है।
होंठ हिलने के आश्रित भाषा की पर्याय नहीं है। होंठ का हिलना वह होंठ के पुद्गलों के आश्रित है। भाषा का परिणमन वह भाषा के पुद्गलों के आश्रित है। ___ होंठ और भाषा, इच्छा और ज्ञान - इन चारों का काल एक होने पर भी चारों परिणाम अलग हैं।
उसमें भी इच्छा और ज्ञान - यह दोनों परिणाम आत्माश्रित होने पर भी इच्छारूप परिणाम के आश्रित ज्ञानरूप परिणाम नहीं हैं। ज्ञान, वह आत्मा का परिणाम है, इच्छा का नहीं; इसी प्रकार इच्छा, वह आत्मा का परिणाम है, ज्ञान का नहीं। इच्छा को जानने वाला ज्ञान वह इच्छा का कार्य नहीं है। उसी प्रकार वह ज्ञान, इच्छा को उत्पन्न भी नहीं करता। इच्छारूप परिणाम आत्मा का कार्य अवश्य है, परन्तु ज्ञान का कार्य नहीं है। भिन्न-भिन्न गुण के परिणाम भिन्न-भिन्न हैं, एक ही द्रव्य में होने पर भी एक गुण के आश्रित दूसरे गुण के परिणाम नहीं हैं। कितनी स्वतंत्रता!! और इसमें पर के आश्रय की तो बात ही कहाँ रही?
आत्मा में चारित्रगुण इत्यादि अनन्त गुण हैं। उनमें चारित्र का विकृत परिणाम सो इच्छा है। वह चारित्रगुण के आश्रित है और उस समय इच्छा का ज्ञान हुआ, वह ज्ञानगुण रूप परिणामी के परिणाम हैं, वह कहीं इच्छा के परिणाम के आश्रित नहीं हैं। इसप्रकार इच्छा परिणाम और ज्ञान परिणाम इन दोनों का भिन्न-भिन्न परिणमन है, दोनों एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं।
भाई! सत् जैसा है, उसी प्रकार उसका ज्ञान करे तो सत् का ज्ञान हो और सत् का ज्ञान करे तो उसका बहुमान एवं यथार्थ का आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा दृढ़ हो और उसमें स्थिरता हो, उसे ही धर्म कहा जाता है। सत् से विपरीत ज्ञान करे उसे धर्म नहीं होता । स्व में स्थिरता ही मूलधर्म है; परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान बिना स्थिरता कहाँ करेगा?
आत्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं । शरीर की अवस्था, हलन-चलन, बोलना - यह सब परिणामी पुद्गलों का परिणाम है, उन पुद्गलों के आश्रित वे परिणाम उत्पन्न हुये हैं, इच्छा के आश्रित नहीं।
उसी प्रकार इच्छा के आश्रित ज्ञान भी नहीं है। पुद्गल के परिणाम आत्मा के आश्रित मानना और आत्मा के परिणाम पुद्गलाश्रित मानना - इसमें तो विपरीत मान्यतारूप मूढ़ता है।
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