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स्वतंत्रता का उद्घोष ज्ञान परिणाम नहीं होते; परन्तु ज्ञानस्वभावी आत्मवस्तु के आश्रय से वे परिणमन होते हैं। आत्मा त्रिकाल स्थित रहने वाला परिणामी है, वह स्वयं रूपान्तरित होकर नवीन-नवीन अवस्थाओं को धारण करता है। उसके ज्ञान-आनन्द इत्यादि जो वर्तमान भाव हैं, वे उसके परिणाम हैं।
'परिणाम, परिणामी के ही हैं; अन्य के नहीं' - इसमें जगत के सभी पदार्थों का नियम आ जाता है। परिणाम, परिणामी के ही आश्रित होते हैं, अन्य के आश्रित नहीं होते हैं। ज्ञान परिणाम, आत्मा के आश्रित हैं, भाषा आदि अन्य के आश्रित ज्ञान के परिणाम नहीं हैं। इसलिये इसमें पर की ओर देखना नहीं रहता; परन्तु अपनी वस्तु के सामने देखकर स्वसन्मुख परिणमन करना रहता है, उसमें मोक्षमार्ग आ जाता है।
वाणी तो अनन्त जड़ परमाणुओं की अवस्था है, वह अपने जड़ परमाणुओं के आश्रित हैं। बोलने की जो इच्छा हुई, उस इच्छा के आश्रित भाषा के परिणाम तीन काल में भी नहीं हैं। जब इच्छा हुई और भाषा निकली उस समय उसका जो ज्ञान हुआ, वह ज्ञान आत्मा के आश्रय से ही हुआ है। भाषा के आश्रय से तथा इच्छा के आश्रय से ज्ञान नहीं हुआ है।
'परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी के आश्रय से ही होते हैं, अन्य के आश्रय से नहीं होते'; - इसप्रकार यहाँ अस्ति-नास्ति से अनेकान्त द्वारा वस्तुस्वरूप समझाया है। यह बात सत्य के सिद्धान्त की अर्थात् वस्तु के सत्स्वरूप की है। अज्ञानी इसको पहिचाने बिना मूढ़तापूर्वक अज्ञानता में ही जीवन पूर्ण कर डालता है। परन्तु भाई! आत्मा क्या है? जड़ क्या है? इनकी भिन्नता समझकर वस्तुस्वरूप के वास्तविक सत् को समझे बिना ज्ञान में सत्पना नहीं आता, अर्थात् सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
वस्तुस्वरूप के सत्य ज्ञान के बिना सच्ची रुचि और श्रद्धा भी नहीं होती और सच्ची श्रद्धा के बिना वस्तु में स्थिरता रूप चारित्र प्रगट नहीं
परिणाम वस्तु का ही होता है होता, शान्ति नहीं होती, समाधान और सुख नहीं होता।
इसलिये वस्तुस्वरूप क्या है, उसे प्रथम समझना चाहिये । वस्तुस्वरूप को समझने से मेरे परिणाम, पर से और पर के परिणाम मुझसे होते हैं - ऐसी पराश्रित बुद्धि नहीं रहती अर्थात् स्वाश्रित-स्वसन्मुख परिणाम प्रगट होता है, यही धर्म है। ___आत्मा को जो ज्ञान होता है; उसको जानने के परिणाम, आत्मा के आश्रित हैं, वे परिणाम वाणी के आश्रय से नहीं हुये हैं, कान के आश्रय से नहीं हुए हैं तथा उस समय की इच्छा के आश्रय से भी नहीं हुये हैं। यद्यपि इच्छा भी आत्मा के परिणाम हैं; परन्तु उन परिणामों के आश्रित ज्ञान परिणाम नहीं हैं। ज्ञान परिणाम, आत्मवस्तु के आश्रित है - इसलिये वस्तुसन्मुख दृष्टि कर।
बोलने की इच्छा हो, होंठ हिलें, भाषा निकले और उस समय उस प्रकार का ज्ञान हो - ऐसी चारों क्रियायें, एक साथ होते हुये भी कोई क्रिया किसी के आश्रित नहीं, सभी अपने-अपने परिणामी द्रव्य के ही आश्रित हैं।
इच्छा वह आत्मा के चारित्रगुण के परिणाम हैं, होंठ हिले वह होंठ के रजकणों की अवस्था है, वह अवस्था इच्छा के आधार से नहीं हुई।
भाषा प्रगट हो, वह भाषावर्गणा के रजकणों की अवस्था है, वह अवस्था इच्छा के आश्रित या होंठ के आश्रित नहीं हुई; परन्तु परिणामी ऐसे रजकणों के आश्रय से वह भाषा उत्पन्न हुई हैं। उस समय का ज्ञान, आत्मवस्तु के आश्रित है, इच्छा अथवा भाषा के आश्रित नहीं है - ऐसा वस्तुस्वरूप है। ____ भाई! तीन काल, तीन लोक में सर्वज्ञ भगवान का देखा हुआ यह वस्तुस्वभाव है; अज्ञानी उसे जाने बिना और समझने की परवाह बिना अन्धे की भाँति चला जाता है; परन्तु वस्तुस्वरूप के सच्चे ज्ञान के बिना किसी प्रकार कहीं भी कल्याण नहीं हो सकता। इस वस्तुस्वरूप को
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