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________________ परिणाम वस्तु का ही होता है स्वतंत्रता का उद्घोष ज्ञानस्वभावीद्रव्य के आश्रित ज्ञानपरिणाम होते हैं; अन्य के आश्रित नहीं होते । इसीप्रकार सम्यग्दर्शन परिणाम, सम्यग्ज्ञान परिणाम, आनन्द परिणाम इत्यादि में भी ऐसा ही समझना । यह ज्ञानादि परिणाम, द्रव्य के आश्रित हैं; अन्य के आश्रित नहीं है तथा परस्पर एक-दूसरे के आश्रित भी नहीं है। ____ गाली के शब्द का अथवा द्वेष के समय द्वेष का ज्ञान हुआ, वह ज्ञान, शब्दों के आश्रित नहीं है और क्रोध के आश्रित भी नहीं है, उसका आधार तो ज्ञानस्वभावी वस्तु है। इसलिए उसके ऊपर दृष्टि लगा दो तो तेरी पर्याय में मोक्षमार्ग प्रगट हो जायेगा। इस मोक्षमार्गरूपी ज्ञान कार्य का कर्ता भी तू ही है, अन्य कोई नहीं। अहो! यह तो सुगम और स्पष्ट बात है । लौकिक पढ़ाई अधिक न की हो; तथापि यह समझ में आ जाये, ऐसा है। जरा अन्दर में उतर कर लक्ष में लेना चाहिये कि आत्मा अस्तिरूप है, उसमें ज्ञान है, आनन्द है, श्रद्धा है, अस्तित्व है - इसप्रकार अनन्त गुण हैं। इन अनन्त गुणों के भिन्न-भिन्न अनन्त परिणाम, प्रति समय होते हैं; उन सभी का आधार परिणामी ऐसा आत्मद्रव्य है, अन्य वस्तु तो उसका आधार नहीं है; परन्तु अपने में दूसरे गुणों के परिणाम भी उनका आधार नहीं हैं। जैसे कि श्रद्धापरिणाम का आधार ज्ञानपरिणाम नहीं है और ज्ञानपरिणाम का आधार श्रद्धा परिणाम नहीं है; दोनों परिणामों का आधार आत्मा ही है। उसीप्रकार सर्व गुणों के परिणामों के लिये समझना । इसप्रकार परिणाम, परिणामी का ही है, अन्य का नहीं। इस २११वें कलश में आचार्यदेव द्वारा कहे गये वस्तुस्वरूप के चार बोलों में से अभी दूसरे बोल का विवेचन चल रहा है। प्रथम तो कहा है कि परिणाम एव किल कर्म' और फिर कहा कि ‘स भवति परिणामिन एव, न अपरस्य भवेत्' परिणाम ही कर्म है और वह परिणामी का ही होता है, अन्य का नहीं - ऐसा निर्णय करके स्वद्रव्य-सन्मुख लक्ष जाने से सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है। सम्यग्ज्ञान व सम्यग्दर्शन परिणाम हुआ, वह आत्मा का कर्म है। वह आत्मारूप परिणामी के आधार से हुआ हैं। पूर्व के मन्दराग के आश्रय से अथवा वर्तमान में शुभराग के आश्रय से वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान के परिणाम नहीं होते। यद्यपि राग भी है तो आत्मा का परिणाम; परन्तु श्रद्धा-परिणाम से राग परिणाम अन्य हैं, वह श्रद्धा का परिणाम राग के आश्रित नहीं हैं; क्योंकि परिणाम परिणामी के ही आश्रय से होते हैं, अन्य के आश्रय से नहीं होते। उसीप्रकार चारित्र परिणाम में - आत्मस्वरूप में स्थिरता, वह चारित्र का कार्य है; यह कार्य, श्रद्धा परिणाम के आश्रित नहीं है, ज्ञान परिणाम के आश्रित नहीं, परन्तु चारित्रगुण को धारण करने वाले आत्मा के ही आश्रित है। शरीरादि के आश्रय से चारित्र परिणाम नहीं है। (१) श्रद्धा का परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित है, (२) ज्ञान का परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित है; (३) स्थिरता का परिणाम आत्मद्रव्य के आश्रित है: (४) आनन्द का परिणाम, आत्मद्रव्य के आश्रित है। बस, मोक्षमार्ग के सभी परिणाम स्व द्रव्याश्रित हैं, अन्य के आश्रित नहीं हैं। उस समय अन्य (रागादि) परिणाम होते हैं, उनके आश्रित भी यह परिणाम नहीं है। एक समय में श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र इत्यादि अनन्त गुणों के परिणाम होते हैं; वे कर्म है। उनका आधार धर्मी अर्थात् परिणमित होने वाली वस्तु है; उस समय अन्य जो अनेक परिणाम होते हैं, उनके आधार से श्रद्धा इत्यादि के परिणाम नहीं हैं। निमित्तादि के आधार से तो नहीं हैं; परन्तु अपने दूसरे परिणाम के आधार से भी कोई परिणाम नहीं है। ___ एक ही द्रव्य में एक साथ होने वाले परिणामों में भी एक परिणाम दूसरे परिणाम के आश्रित नहीं है; द्रव्य के ही आश्रित सभी परिणाम हैं। सभी परिणामरूप से परिणमन करने वाला द्रव्य ही है - अर्थात् द्रव्य सन्मुख लक्ष जाते ही सम्यक् पर्यायें प्रगट होने लगती हैं। (7)
SR No.009478
Book TitleSwatantrata ka Udghosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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