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________________ स्वतंत्रता का उद्घोष मेरी पर्याय का कर्ता दूसरा कोई नहीं है, मेरा द्रव्य ही परिणमित होकर मेरी पर्याय का कर्ता होता है - ऐसा निश्चय करने से स्वद्रव्य पर लक्ष जाता है और भेदज्ञान तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल में कुछ चारित्रदोष से रागादि परिणाम रहे, वे भी अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा का परिणमन होने से आत्मा का कार्य है - ऐसा धर्मी जीव जानता है; उसे जानने की अपेक्षा से व्यवहार को उस काल में जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। धर्मी को द्रव्य का शुद्ध स्वभाव लक्ष में आ गया है; इसलिए सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेष रहा है, उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं; परन्तु अब उसकी मुख्यता नहीं है, मुख्यता तो स्वभाव की हो गई है। ___ पहले अज्ञानदशा में मिथ्यात्वादि परिणाम थे, वे भी स्वद्रव्य के अशुद्ध उपादान के आश्रय से ही थे; परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्य के ही आश्रय से होते हैं, तब उस जीव को मिथ्यात्व परिणाम नहीं रहते, उसे तो सम्यक्त्वादिरूप परिणाम ही होते हैं। अब, जो राग परिणमन साधक पर्याय में शेष रहा है, उसमें यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है; तथापि वह परिणमन अपना है - ऐसा वह जानता है। ऐसा व्यवहार का ज्ञान, उस काल का प्रयोजनवान है। सम्यग्ज्ञान होता है तब निश्चय व्यवहार का स्वरूप यथार्थ ज्ञात होता है, तब द्रव्य-पर्याय का स्वरूप ज्ञात होता है, तब कर्ता-कर्म का स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रव्य के लक्ष से मोक्षमार्गरूप कार्य प्रगट होता है; उसका कर्ता आत्मा स्वयं है। इसप्रकार इस २११वें कलश में आचार्यदेव ने चार बोलों द्वारा स्पष्ट रूप से अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है; उसका विवेचन पूर्ण हुआ। ॥इति स्वतंत्रता की घोषणा पूर्ण / / प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करनेवाले दातारों की सूची 1. श्रीमती पुष्पलता जैन ध.प. अजितकुमारजी जैन 500.00 छिन्दवाड़ा (13)
SR No.009478
Book TitleSwatantrata ka Udghosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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