________________
स्वतंत्रता का उद्घोष
वस्तु सदा कूटस्थ नहीं
वहाँ संयोग के कारण वह भिन्न अवस्था हुई - ऐसा अज्ञानी का भ्रम है; क्योंकि वह संयोग को ही देखता है; परन्तु वस्तुस्वभाव को नहीं देखता।
वस्तु, स्वयं परिणमनस्वभावी है, इसलिये वह एक ही पर्यायरूप नहीं रहती; - ऐसे स्वभाव को जाने तो किसी संयोग से अपने में या अपने से पर में परिवर्तन होने की बुद्धि छूट जाये और स्वद्रव्य की ओर देखना रहे, इसलिए मोक्षमार्ग प्रगट हो।
पानी पहले ठण्डा था और चूल्हे पर आने के बाद गर्म हुआ, वहाँ उन रजकणों का ही ऐसा स्वभाव है कि उनकी सदा एक अवस्थारूप स्थिति न रहे । इसलिये वे अपने स्वभाव से ही ठण्डी अवस्था को छोड़कर गर्म अवस्थारूप परिणमित हुये हैं; इसप्रकार स्वभाव को न देखकर अज्ञानी संयोग को देखता है कि - अग्नि के आने से पानी गर्म हुआ।
आचार्यदेव ने चार बोलों से स्वतंत्र वस्तुस्वरूप समझाया है, उसे समझ ले तो कहीं भ्रम न रहे। एक समय में तीन काल-तीन लोक को जानने वाले सर्वज्ञ परमात्मा वीतराग तीर्थंकरदेव की दिव्यध्वनि में आया हुआ यह तत्त्व है और सन्तों ने इसे प्रगट किया है।
बर्फ के संयोग से पानी ठंडा हुआ और अग्नि के संयोग से पानी गर्म हुआ - ऐसा अज्ञानी देखता है; परन्तु पानी के रजकणों में ही ठंडा-गर्म अवस्थारूप परिणमित होने का स्वभाव है; उसे अज्ञानी नहीं देखता।
भाई! वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्था की स्थिति एकरूप न रहे । वस्तु कूटस्थ नहीं है; परन्तु बहते हुये पानी की भाँति द्रवित होती है - पर्याय को प्रवाहित करती है, उस पर्याय का प्रवाह वस्तु में से आता है, संयोग में से नहीं आता।
भिन्न प्रकार के संयोग के कारण अवस्था की भिन्नता हुई अथवा संयोग बदले, इसलिये अवस्था बदल गई - ऐसा भ्रम अज्ञानी को होता है; परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहाँ चार बोलों द्वारा वस्तु का स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है।
(१) परिणाम ही कर्म है। (२) परिणामी वस्तु के परिणाम हैं, अन्य
के नहीं। (३) वह परिणामरूपी कर्म, कर्ता के बिना नहीं होता। (४) वस्तु की स्थिति एकरूप नहीं रहती। ___इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म का कर्ता है - यह सिद्धान्त है। इन चारों बोलों में तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करने से भेदज्ञान तथा द्रव्यसन्मुख दृष्टि से मोक्षमार्ग प्रगट होगा।
प्रश्न :- संयोग आये, तदनुसार अवस्था बदलती दिखाई देती है न?
उत्तर :- यह बराबर नहीं है; वस्तु के स्वभाव को देखने से ऐसा दिखाई नहीं देता। अवस्था बदलने का स्वभाव वस्तु का अपना है, ऐसा दिखाई देता है। ___ कर्म का मंद उदय हो, इसलिये मंद राग और तीव्र उदय हो, इसलिये तीव्र राग-ऐसा नहीं है, अवस्था एकरूप नहीं रहती, परन्तु अपनी योग्यता से मंद-तीव्ररूप से बदलती है - ऐसा स्वभाव, वस्तु का अपना है; वह कहीं पर के कारण नहीं है।
भगवान के निकट जाकर पूजा करे या शास्त्र श्रवण करे, उस समय अलग परिणाम होते हैं और घर पहुंचने पर अलग परिणाम हो जाते हैं तो क्या संयोग के कारण वे परिणाम बदले?
नहीं; वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहें - ऐसा ही उसका स्वभाव है; उन परिणामों का बदलना वस्तु के आश्रय से ही होता है; संयोग के आश्रय से नहीं। इसप्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणाम का कर्ता है - यह निश्चित सिद्धान्त है।
इन चार बोलों के सिद्धान्तानुसार वस्तु-स्वरूप को समझे तो मिथ्यात्व की जड़ें उखड़ जायें और पराश्रितबुद्धि छूट जाये। ऐसे स्वभाव की प्रतीति होने से अखण्ड स्ववस्तु पर लक्ष जाता है और सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है।
उस सम्यग्ज्ञान परिणाम का कर्ता, आत्मा स्वयं है। पहले अज्ञान परिणाम भी वस्तु के ही आश्रय से थे और अब ज्ञान परिणाम हुये, वे भी वस्तु के ही आश्रय से हैं।
(12)