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स्वतंत्रता का उद्घोष
उसीप्रकार ज्ञान कार्य का कर्ता भी आत्मा ही है। इच्छा का ज्ञान हुआ, वहाँ वह ज्ञान, कहीं इच्छा का कार्य नहीं है और वह इच्छा, ज्ञान का कार्य नहीं है। दोनों परिणाम एक ही वस्तु के होने पर भी उनमें कर्ताकर्मपना नहीं है, कर्ता तो परिणामी वस्तु है।
पुद्गल में खट्टी-खारी अवस्था थी और ज्ञान ने तदनुसार जाना; वहाँ खट्टी-खारी तो पुद्गल के परिणाम है और पुद्गल, उनका कर्ता है; तत्सम्बन्धी जो ज्ञान हुआ उसका कर्ता आत्मा है; उस ज्ञान का कर्ता वह खट्टी-खारी अवस्था नहीं है।
अहो! कितनी स्वतंत्रता!!
उसी प्रकार शरीर में रोगादि जो कार्य हो, उसके कर्ता वे पुद्गल हैं, आत्मा नहीं और उस शरीर की अवस्था का जो ज्ञान हुआ, उसका कर्ता आत्मा है।
आत्मा, कर्ता होकर ज्ञान परिणाम को करता है; परन्तु शरीर की अवस्था को वह नहीं करता। भाई! यह तो परमेश्वर होने के लिए परमेश्वर के घर की बात है। परमेश्वर सर्वज्ञदेव कथित यह वस्तुस्वरूप है।
जगत में चेतन या जड़ अनन्त पदार्थ, अनन्तरूप से नित्य रह कर अपने वर्तमान कार्य को करते हैं। प्रत्येक परमाणु में स्पर्श-रंग आदि अनन्तगुण; स्पर्श की चिकनी आदि अवस्था; रंग की काली आदि अवस्था, उस उस अवस्था का कर्ता परमाणुद्रव्य है; चिकनी अवस्था वह काली अवस्था का कर्ता नहीं है।
इसप्रकार आत्मा में - प्रत्येक आत्मा में अनन्तगुण हैं; ज्ञान में केवलज्ञान पर्यायरूप कार्य हुआ, आनन्द-पूर्ण आनन्द प्रगट हुआ, उसका कर्ता आत्मा स्वयं है। मनुष्य का शरीर अथवा स्वस्थ शरीर के कारण वह कार्य हुआ, ऐसा नहीं है।
पूर्व की मोक्षमार्ग की पर्याय के आधार से वह कार्य हुआ - ऐसा भी नहीं है; ज्ञान और आनन्द के परिणाम भी एक-दूसरे के आश्रित नहीं हैं;
वस्तु सदा कूटस्थ नहीं द्रव्य ही परिणमित होकर उस कार्य का कर्ता हुआ है। भगवान आत्मा, स्वयं ही अपने केवलज्ञानादि कार्य का कर्ता है, अन्य कोई नहीं। - यह तीसरा बोल हुआ। (४) वस्तु की स्थिति सदा एकरूप (-कूटस्थ) नहीं रहती -
सर्वज्ञदेव द्वारा देखा हुआ वस्तु का स्वरूप ऐसा है कि वह नित्य अवस्थित रहकर प्रतिक्षण नवीन अवस्थारूप परिणमित होता रहता है।
पर्याय बदले बिना ज्यों का त्यों कूटस्थ ही रहे - ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं है। वस्तु, द्रव्य-पर्याय स्वरूप है, इसलिये उसमें सर्वथा अकेला नित्यपना नहीं है, पर्याय से परिवर्तनपना भी है। वस्तु, स्वयं ही अपनी पर्यायरूप से पलटती है, कोई दूसरा उसे परिवर्तित करे - ऐसा नहीं है। नयी-नयी पर्यायरूप होना, वह वस्तु का अपना स्वभाव है, तो कोई उसका क्या करेगा? ___इन संयोगों के कारण, यह पर्याय हुई, - इसप्रकार संयोग के कारण जो पर्याय मानता है, उसने वस्तु के परिणामनस्वभाव को नहीं जाना है, दो द्रव्यों को एक माना है।
भाई! तू संयोग से न देख, वस्तुस्वभाव को देख । वस्तुस्वभाव ही ऐसा है - वह नित्य एकरूप न रहे। द्रव्यरूप से एकरूप रहे; परन्तु पर्यायरूप से एकरूप न रहे, पलटता ही रहे - ऐसा वस्तुस्वरूप है। इन चार बोलों से ऐसा समझाया है कि वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कार्य की कर्ता है - यह निश्चित सिद्धान्त है।
इस पुस्तक का पृष्ट पहले ऐसा था और फिर पलट गया; वहाँ हाथ लगने से पलटा हो, ऐसा नहीं है; परन्तु उन पृष्ठों के रजकणों में ही ऐसा स्वभाव है कि सदा एकरूप उनकी स्थिति न रहे; उनकी अवस्था बदलती रहती है; इसलिये वे स्वयं पहली अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्थारूप हुये हैं, दूसरे के कारण नहीं। वस्तु में भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती ही रहती हैं;
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