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________________ मैं कौन हूँ ? १४ लायक मुझमें कुछ भी नहीं है तथा अपने में परिपूर्ण होने से पर के सहयोग की भी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। यह आत्मा वाग्विलास और शब्दजाल से परे है, मात्र अनुभूतिगम्य है । उस आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्व - विचार है; पर वह आत्मानुभूति तत्त्वविचार अर्थात् आत्मतत्त्व संबंधी विकल्प का भी अभाव करके प्रकट होनेवाली स्थिति है। 'मैं कौन हूँ ?' यह जानने की वस्तु है, यह अनुभूति द्वारा प्राप्त होनेवाला समाधान (उत्तर) है। यह वाणी द्वारा व्यक्त करने और लेखनी द्वारा लिखने की वस्तु नहीं है। वाणी और लेखनी की इस संदर्भ में मात्र इतनी ही उपयोगिता है कि ये उसकी ओर संकेत कर सकती है। ये दिशा इंगित कर सकती है, दशा नहीं ला सकती हैं। मैं अर्थात् स्वयं, स्वयं का आत्मा, देह में रहने पर भी देह से भिन्न आत्मा, वर्तमान में राग-द्वेषरूप परिणमित होने पर भी उन क्षणिक रागद्वेषरूप नश्वर भावों से भिन्न आत्मा, सादि- सान्त पर्यायों से भिन्न अनादिआत्मा, अनंत गुणवाला होने पर भी गुणभेद से भिन्न ज्ञानानन्द-स्वभावी आत्मा; ऐसे आत्मा को जानने के लिए सबसे पहले शुद्धात्मा के निरूपक शास्त्रों में पढ़कर और आत्मानुभवी गुरुओं के मुख से सुनकर उसका सही स्वरूप समझना होगा। तदुपरान्त परोन्मुखी दृष्टि त्याग कर स्वोन्मुखी दृष्टि से अन्तर्मुख होकर उसका अनुभव करना होगा; कुछ क्षणों के लिए ही सही, पर उसी में समा जाना होगा। भगवान आत्मा अर्थात् मैं को समझने का एकमात्र यही सम्यक् मार्ग है। उक्त मार्ग पर चलकर सभी आत्मा निज भगवान आत्मा को अर्थात् स्वयं को जाने, पहिचाने और स्वयं में रम जाये, जम जाये, स्वयं में समा जाये ह्न इस मंगल भावना से विराम लेता हूँ। 8 आत्मानुभूति और तत्त्वविचार 'सुख क्या है' और 'मैं कौन हूँ?' इन प्रश्नों का सही उत्तर प्राप्त करने का एकमात्र उपाय आत्मानुभूति है तथा आत्मानुभूति प्राप्त करने का प्रारंभिक उपाय तत्त्वविचार है; पर आत्मानुभूति अपनी प्रारंभिक भूमिका तत्त्वविचार का भी अभाव करती हुई उदित होती है; क्योंकि तत्त्वविचार विकल्पात्मक है और आत्मा निर्विकल्पक स्वसंवेद्य तत्त्व है । निर्विकल्पक तत्त्व की अनुभूति विकल्पों द्वारा नहीं की जा सकती है । उक्त तथ्य 'सुख क्या है ?' और 'मैं कौन हूँ ?' नामक निबंधों में स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ तो विचारणीय प्रश्न यह है कि आत्मानुभूति की दशा क्या है और तत्त्वविचार किसे कहना ? अन्तरोन्मुखी वृत्ति द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम ही आत्मानुभूति है। वर्तमान प्रगट ज्ञान को परलक्ष्य से हटा कर स्वद्रव्य (त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व) में लगा देना ही आत्मसाक्षात्कार की स्थिति है । वह ज्ञानतत्त्व से निर्मित होने से, ज्ञानतत्त्व की ग्राहक होने से और सम्यग्ज्ञान - परिणति की उत्पादक होने से ज्ञानमय है । अतः वह आत्मानुभूति ज्ञायक, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्तिरूप होकर भी इनके भेद से रहित अभेद और अखण्ड है। तात्पर्य यह है कि जाननेवाला भी स्वयं आत्मा है और जानने में आनेवाला भी स्वयं आत्मा ही है तथा ज्ञानपरिणति भी आत्मामय हो रही है। यह ज्ञानमय दशा आनन्दमय भी है, यह ज्ञानानन्दमय है। इसमें ज्ञान और आनन्द का भेद नहीं है। यह ज्ञान भी इन्द्रियातीत है और आनन्द भी इन्द्रियातीत । यह अतीन्द्रिय ज्ञानानन्दरूप दशा ही धर्म है। अतीन्द्रिय ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व पर सम्पूर्ण प्रगट ज्ञानशक्ति का केन्द्रीभूत हो जाना धर्म की दशा है। अतः एक मात्र यही ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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