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________________ १२ मैं कौन हूँ? पहिचानो और स्वयं में ही समा जावो; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। हाँ, तो फिर मैं हूँ कौन? 'मैं' शरीर, मन, वाणी और मोह-राग-द्वेष; यहाँ तक कि क्षणस्थायी परलक्षी बुद्धि से भिन्न एक त्रैकालिक, शुद्ध, अनादि-अनन्त, चैतन्य, ज्ञानानन्दस्वभावी ध्रुवतत्त्व हूँ, जिसे आत्मा कहते हैं। जिसप्रकार 'मैं बंगाली हूँ, मैं मद्रासी हूँ और मैं पंजाबी हूँ; ह्र इस प्रान्तीयता के घटाटोप में आदमी भूल जाता है कि 'मैं भारतीय हूँ और प्रान्तीयता की सघन अनुभूति से भारतीय राष्ट्रीयता खण्डित होने लगती है; उसीप्रकार 'मैं मनुष्य हूँ, देव हूँ; पुरुष हूँ, स्त्री हूँ; बालक हूँ, जवान हूँ; आदि में आत्मबुद्धि के बादलों के बीच आत्मा तिरोहित सा हो जाता है। जिसप्रकार आज के राष्ट्रीय नेताओं की पुकार है कि देशप्रेमी बन्धुओ! आप लोग मद्रासी और बंगाली होने के पहिले भारतीय हैं ह्र यह क्यों भूल जाते हैं ? उसीप्रकार मेरा कहना है कि हम 'मैं सेठ हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ' के कोलाहल में 'मैं आत्मा हूँ ह्र यह क्यों भूल जाते हैं ? जिसप्रकार भारत देश की अखण्डता अक्षुण्ण रखने के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक भारतीय में 'मैं भारतीय हूँ ह्र यह अनुभूति प्रबल होनी चाहिए; क्योंकि राष्ट्रीय एकता के लिए उक्त अनुभूति ही एकमात्र सच्चा उपाय है। उसीप्रकार 'मैं कौन हूँ ?' का सही उत्तर पाने के लिए 'मैं आत्मा हूँ' की अनुभूति प्रबल हो; ह्र यह अति आवश्यक है। ___ हाँ ! तो स्त्री, पुत्र, मकान, रुपया, पैसा यहाँ तक कि शरीर से भी भिन्न 'मैं' तो एक चेतनतत्त्व आत्मा हूँ। आत्मा में उठनेवाले मोह-रागद्वेष भाव भी क्षणस्थायी विकारी भाव होने से आत्मा की सीमा में नहीं मैं कौन हूँ? आते तथा परलक्षी ज्ञान का अल्पविकास भी परिपूर्ण ज्ञानस्वभावी आत्मा का अवबोध कराने में समर्थ नहीं है। __यहाँ तक कि ज्ञान की पूर्ण विकसित अवस्था केवलज्ञान भी अनादिअनन्त पूर्ण एक ज्ञानस्वभावी आत्मा नहीं हो सकता है; क्योंकि आत्मा तो एक द्रव्य है और यह केवलज्ञान आत्मा के ज्ञान गुण की पूर्ण विकसित एक पर्याय मात्र है। ___'मैं' का वाच्यार्थ 'आत्मा' तो अनादि-अनन्त अविनाशी त्रैकालिक तत्त्व है। जबतक उस ज्ञानस्वभावी अविनाशी ध्रुवतत्त्व में अहंबुद्धि (वही 'मैं' हूँ ह्र ऐसी मान्यता) नहीं आती; तबतक 'मैं कौन हूँ ?' यह प्रश्न भी अनुत्तरित ही रहेगा। ___ 'मैं' शब्द के द्वारा जिस आत्मा का कथन किया जाता है; वह आत्मा अन्तरोन्मुखी दृष्टि का विषय है, अनुभवगम्य है; बहिर्लक्षी दौड़-धूप से वह प्राप्त नहीं किया जा सकता है। वह स्वसंवेद्य तत्त्व है; अत: उसे मानसिक विकल्पों में नहीं बांधा जा सकता है। उसे इन्द्रियों द्वारा भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता; क्योंकि इन्द्रियाँ तो मात्र स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द की ग्राहक हैं। अत: वे तो केवल स्पर्श, रस, गंध, वर्णवाले जड़तत्त्व को ही जानने में निमित्त मात्र हैं। वे इन्द्रियाँ अरस, अरूपी आत्मा को जानने में एक तरह से निमित्त भी नहीं हो सकती हैं। ___ यह अनुभवगम्य आत्मवस्तु ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का कंद है। रूप, रस, गंध, स्पर्श और मोह-राग-द्वेष आदि सर्व परभावों से भिन्न, सर्वांग परिपूर्ण शुद्ध है। समस्त परभावों से भिन्नता और ज्ञानादिमय भावों से अभिन्नता ही इसकी शुद्धता है। यह एक है। अनन्त गुणों की अखण्डता की इसकी एकता है। ऐसा यह आत्मा मात्र आत्मा है और कुछ नहीं है यानी 'मैं' मैं ही हूँ और कुछ नहीं। 'मैं' मैं ही हूँ और अपने में ही सबकुछ हूँ। पर को देने
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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