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मैं कौन हूँ? इसका उत्तर मिलना दुर्लभ नहीं है; पर यह 'मैं' पर की खोज में स्वयं को भूल रहा है। कैसी विचित्र बात है कि खोजनेवाला खोजनेवाले को ही भूल रहा है। सारा जगत पर की संभाल में इतना व्यस्त नजर आता है कि 'मैं कौन हूँ ?' ह यह सोचने-समझने की उसे फुर्सत ही नहीं है। ___ पर-पदार्थों की खोज में उलझे इस जगत को स्वयं के अस्तित्व पर उतना भी भरोसा नहीं है कि जितना परपदार्थों के अस्तित्व पर है।
जब मैं किसी को रूमाल दिखाकर कहता हूँ कि यह रूमाल है न ? तब सभी कहते हैं हाँ है; पर जब मैं कहता हूँ कि आत्मा है न ? तो लोग कहते हैं कि आत्मा भी होगा। तात्पर्य यह है कि जैसा रूमाल का अस्तित्व हमें स्वीकार है, वैसा आत्मा का नहीं; क्योंकि रूमाल के सन्दर्भ में हम 'है' कहते हैं और आत्मा के संदर्भ में होगा' बोलते हैं।
जब मैं फिर पूछता हूँ कि आत्मा होगा या है ? तब उनका उत्तर होता है कि जब आप कहते हैं तो होगा ही। ___'मैं कहता हूँ; इसलिए है या वह वास्तव में है' ह ऐसा पूछने पर बड़े ही भोलेपन से उत्तर देते हैं कि आप अपनी ओर से थोड़े ही कहते हैं, शास्त्रों में जो लिखा है, वही बताते हैं। __ जब मैं यह कहता हूँ कि इसका अर्थ तो यह हुआ कि आत्मा के अस्तित्व का आधार शास्त्र है? तब वे कहते हैं कि बात तो ऐसी ही है; क्योंकि शास्त्रों में भी तो वही लिखा है, जो भगवान की दिव्यध्वनि में आया था।
इसतरह हम देखते हैं कि आत्मा हमारे लिए एक सुनी हुई बात है, पढ़ी हुई बात है; देखी-जानी नहीं।
जबतक हम स्वयं को देखेंगे नहीं, जानेंगे नहीं; उसकी अनुभूति नहीं करेंगे; तबतक हमें उसका अस्तित्व भी स्वीकार नहीं होगा।
मैं कौन हूँ?
अरे भाई, वह आत्मा और कोई नहीं, तुम स्वयं ही हो। तुम्हें स्वयं के अस्तित्व का भी भरोसा नहीं; इससे अधिक बदतर स्थिति और क्या हो सकती है ? एक बार उसे जानो, देखो और उसके अस्तित्व का अनुभव करो।
जब हम किसी के घर जाते हैं तो उसके दरवाजे पर लगी घंटी को बजाते हैं। घर की मालकिन के पूछने पर कि कौन है, क्या काम है, किससे मिलना है ? हम अपना परिचय देते हैं, घर के मालिक से मिलने की बात कहते हैं। यदि गृहपति घर में हुआ तो ठीक, अन्यथा उत्तर मिल जाता है कि वे घर पर नहीं हैं; किन्तु मैं स्वयं के घर जाऊँ और घंटी बजाऊँ । अन्दर से पत्नी के पूछने पर कहूँ कि मैं डॉ. भारिल्ल (स्वयं) से मिलना चाहता हूँ। सुबह से उन्हें खोज रहा हूँ, पर वे मिल नहीं रहे हैं। वे आपके यहाँ तो नहीं आये?
जरा सोचो, मेरे द्वारा ऐसा कहा जाने पर क्या होगा? यही न कि मुझे पागलखाने भेजे जाने की तैयारी होने लगेगी; क्योंकि लोक में कोई स्वयं को खोजता फिरे और कहे कि मुझे मैं नहीं मिल रहा हूँ तो उसका स्थान पागल खाने के अतिरिक्त और कहाँ हो सकता है ? ।
इसीप्रकार हमें सबकुछ समझ में आता है; पर आत्मा (मैं) समझ में नहीं आता है तो हमारा स्थान कहाँ होना चाहिए ?
अरे भाई, जहाँ हम रह रहे हैं ह्न यह संसार एक पागलखाना ही तो है; क्योंकि यहाँ के अधिकांश लोग सबको जान रहे हैं, पर जाननेवाले को नहीं जानते; सबको देख रहे हैं, पर देखनेवाले को नहीं देखते; सबके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं; पर स्वयं (आत्मा) के अस्तित्व में संदेह व्यक्त करते हैं। हम पर के देखने-जानने में इतने व्यस्त हैं कि स्वयं को जानने के लिए हमारे पास समय ही नहीं है।
अरे भाई, जाननेवाले को जानो, देखनेवाले को देखो; स्वयं को