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________________ मैं कौन हूँ ? गहराई से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि आत्मा को सुख कहीं से प्राप्त नहीं करना है; क्योंकि वह सुख से ही बना है, सुखमय ही है, सुख भोगने की वस्तु है, अनुभव करने की चीज है। सुख के लिए क्यों तड़पना ? सुख में तड़पन नहीं है, तड़पन में सुख का अभाव है; तड़पन स्वयं दुःख है, तड़पन का अभाव ही सुख है। इसीप्रकार सुख को क्या चाहना ? चाह स्वयं दुःखरूप है, चाह का अभाव ही सुख है। 'सुख क्या है ?', 'सुख कहाँ है ?', 'वह कैसे प्राप्त होगा ?' – इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर है, एक ही समाधान है और वह है। आत्मानुभूति । उस आत्मानुभूति को प्राप्त करने का प्रारम्भिक उपाय तत्त्वविचार है । पर ध्यान रहे वह आत्मानुभूति अपनी प्रारम्भिक भूमिका - तत्त्वविचार का भी अभाव करके उत्पन्न होती है। 'मैं कौन हूँ ?', 'आत्मा क्या है?' और 'आत्मानुभूति कैसे प्राप्त होती है ?' - ये पृथक् विषय हैं; अतः इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित है। ८ पर-पदार्थों में लगा हुआ वर्त्तमान प्रकट ज्ञान का प्रत्येक कण गर्म तवे या रेगिस्तान में पड़े हुए जल-बिन्दु के समान या तो जल जाता है या सूख जाता है, विकल्पात्मक आत्म-चिन्तन में लगा हुआ ज्ञानकण कमलपत्र पर पड़े हुए जल-बिन्दु के समान मोती के समान चमकता है; किन्तु आत्मा में लगा हुआ ज्ञानांश नदी की धारा के समान निरन्तर विस्तार को प्राप्त होता हुआ ज्ञान सागर बन जाता है, अर्थात् पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। - डॉ. भारिल्ल की डायरी से मैं कौन हूँ ‘मैं' शब्द का प्रयोग हम प्रतिदिन कई बार करते हैं, पर गहराई से कभी यह सोचने का यत्न नहीं करते हैं कि 'मैं' का वास्तविक अर्थ क्या है ? 'मैं' का असली वाच्यार्थ क्या है ? 'मैं' शब्द किस वस्तु का वाचक है? सामान्य तरीके से सोचकर आप कह सकते हैं कि इसमें गहराई से सोचने की बात ही क्या है ? क्या हम इतना भी नहीं समझते हैं कि मैं कौन हूँ? और आप उत्तर भी दे सकते हैं कि 'मैं बालक हूँ या जवान हूँ, मैं पुरुष हूँ या स्त्री हूँ, मैं पण्डित हूँ या सेठ हूँ।' पर मेरा प्रश्न तो यह है कि क्या आप इनके अलावा और कुछ नहीं हैं ? क्योंकि ये सब तो बाहर से दिखनेवाली संयोगी पर्यायें मात्र हैं। मेरा कहना है कि यदि आप बालक हैं तो बालकपन तो एक दिन समाप्त हो जानेवाला है, पर आप तो फिर भी रहेंगे; अतः आप बालक नहीं हो सकते । इसीप्रकार जवान भी नहीं हो सकते; क्योंकि बालकपन और जवानी यह तो शरीर के धर्म हैं तथा 'मैं' शब्द शरीर का वाचक नहीं है। मुझे विश्वास है कि आप भी अपने को शरीर नहीं मानते होंगे। ऐसे ही आप सेठ तो धन के संयोग से हैं, पर धन तो निकल जानेवाला है; तो क्या जब धन नहीं रहेगा, तब आप भी न रहेंगे ? तथा पण्डिताई तो शास्त्रज्ञान का नाम है; तो क्या जब आपको शास्त्रज्ञान नहीं था, जब आप नहीं थे ? यदि थे, तो मालूम होता है कि आप धन और पण्डिताई से भी पृथक् हैं अर्थात् आप सेठ और पण्डित भी नहीं हैं। तब प्रश्न उठता है कि आखिर 'मैं हूँ कौन?' यदि एक बार यह प्रश्न हृदय की गहराई से उठे और उसके समाधान की सच्ची जिज्ञासा जगे तो
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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