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________________ मैं कौन हूँ ? १८ पर्याप्त है। पर प्रगट ज्ञान का आत्म-स्वभाव के प्रति सर्वस्व समर्पण एक अनिवार्य तत्त्व ( शर्त) है, जिसके बिना आत्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि प्रयोजनभूत तत्त्वों का विकल्पात्मक सच्चा निर्णय हो गया हो तो प्रयोजनभूत बहिर्लक्षी ज्ञान की हीनाधिकता से कोई अंतर नहीं पड़ता, पर एकनिष्ठता (आत्मनिष्ठता) अति आवश्यक है। यह आत्मा अपनी भूल से पर्याय में चाहे जितना उन्मार्गी बने, पर आत्मस्वभाव उसे कभी भी छोड़ नहीं देता; किन्तु जबतक यह आत्मा अपनी दृष्टि को समस्त परपदार्थों से हटा कर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाता; तबतक आत्मस्वभाव की सच्ची अनुभूति भी प्राप्त नहीं हो सकती। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए बाह्य साधनों की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है। जिसप्रकार लोक में अपनी वस्तु के उपयोग के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है; उसीप्रकार आत्मानुभूति के लिए बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वयं को, स्वयं की, स्वयं के द्वारा ही तो अनुभूति करना है। आखिर इसमें पर की अपेक्षा क्यों हो ? आत्मानुभूति में पर के सहयोग का विकल्प बाधक ही है, साधक नहीं। आत्मानुभूति के काल में पर संबंधी विकल्पमात्र आत्मानुभूति एकरसता को छिन्न-भिन्न किए बिना नहीं रहता है। अतः यह निश्चित है कि जो साधक अपनी साधना में पर के सहयोग की आकांक्षा से व्यग्र रहता है, उसके पल्ले मात्र व्यग्रता ही पड़ती है; उसे साध्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। अतः आत्मानुभव के अभिलाषी मुमुक्षुओं को पर के सहयोग की कल्पना में आकुलित नहीं रहना चाहिए । शुभाशुभ विकल्पों के टूटने की प्रक्रिया और क्रम क्या है ? तथा परनिरपेक्ष आत्मानुभूति के मार्ग के पथिक की अंतरंग व बहिरंग दशा कैसी होती है ? ये अपने आप में विस्तृत विषय है। इन पर पृथक् से विवेचन अपेक्षित है। 10 आत्मानुभूति : प्रक्रिया और क्रम अन्तरोन्मुखीवृत्ति द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम आत्मानुभूति है तथा वर्तमान प्रगट ज्ञान को परलक्ष्य से हटाकर स्वद्रव्य (त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व) में लगा देना ही आत्मानुभूति प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। इसके पूर्व तत्त्वविचार संबंधी वैचारिक (विकल्पात्मक) प्रक्रिया चलती है। उक्त वैचारिक प्रक्रिया की श्रेणियों को पार करती हुई वर्तमान प्रगट ज्ञानशक्ति उस वैचारिक प्रक्रिया का भी अभाव करती हुई आत्मोन्मुखी होती है। अतः स्वभाव - ग्रहण की प्रक्रिया तत्त्वमंथनपूर्वक अशुभ-शुभ विकल्पों का अभाव करती हुई स्व को ग्रहण करती हुई है। उक्त तथ्य पूर्व निबंधों में स्पष्ट किया जा चुका है। यहाँ तो मुख्यत: विचार का विषय यह है कि तत्त्वमंथनपूर्वक शुभाशुभ विकल्पों के अभावपूर्वक आत्मानुभूति प्राप्त करने का वास्तविक मार्ग क्या है ? वैसे तो निरंतर आत्मा में पर-लक्षी वैचारिक प्रक्रिया चला ही करती है। एक भी समय ऐसा नहीं जाता कि जब मनसहित प्राणी कुछ न कुछ विचार न करता रहता हो । इसके साथ ही मोह-राग-द्वेष की वृत्ति के कारण पर-पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट कल्पनाएँ भी चला करती हैं। अतः यह जीव कभी किसी का भला करने की सोचता रहता है और कभी किसी का बुरा करने की सोचा करता है। दूसरे का भला-बुरा करना इसके हाथ की बात नहीं है। अतः इसके दोनों विकल्प असत् के आश्रय से उत्पन्न होने के कारण अशुद्ध हैं; क्योंकि शुद्धता की उत्पत्ति सत् के आश्रय से होती है। हम दूसरे का भला-बुरा कर सकते हैं या नहीं ? यह एक स्वतंत्र निबंध का विषय है । इस पर अलग से विचार करेंगे। अशुद्ध भावों को शुभ और अशुभ इन दो भागों में बांटा जाता है। इसे हम इस तरह स्पष्ट कर सकते हैं कि भाव दो प्रकार के होते हैं ह्र शुद्ध और अशुद्ध; तथा अशुद्ध भाव भी दो प्रकार के होते हैं ह्र शुभ और
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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