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________________ २१ मैं कौन हूँ? अशुभ । इस तरह भाव तीन प्रकार के हुए ह्न शुद्ध, शुभ और अशुभ । पर ध्यान रहे शुभ और अशुभ यह दोनों अशुद्ध भावों के ही अवान्तर भेद हैं। दया, दान, पूजा, भक्ति, तत्त्वविचार आदि के भाव शुभभाव हैं और पंचेन्द्रियों के विषय एवं हिंसादि पाँच पाप आदि के भाव अशुभभाव । अपने उपयोग को पर से समेट कर अपने में लीन हो जाना ही शुद्धभाव हैं। भूमिकानुसार राग व रागांश का अभाव होने से इसे वीतरागभाव भी कहते हैं। शुभाशुभभावों को रागभाव कहते हैं और शुभाशुभभावों के अभावरूप भाव को वीतरागभाव कहते हैं। आत्मानुभूति की दशा शुद्धभाव है और आत्मानुभूति प्राप्त करने का विकल्प शुभभाव। आत्मानुभूति प्राप्त करने के विकल्प अशुभभावों के अभावपूर्वक ही आते हैं। आत्मानुभूति की प्राप्ति के प्रयत्न के काल में हिंसादि और भोगादि के विकल्प बने रहें, यह संभव ही नहीं। उस काल में तो बहुत से शुभ विकल्प भी प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं; विशेषकर वे शुभ विकल्प जो आत्मा के लक्ष्य से उत्पन्न न होकर पर के लक्ष्य से उत्पन्न होते हैं। शुभभाव भी कई प्रकार के होते हैं। आत्मखोज संबंधी विकल्प भी शुभ भावों में आते हैं और दीन-दुखियों की सहायता करने के भाव, दया, दान, पूजा, भक्ति आदि के भाव भी शुभभावों में आते हैं। तत्त्वविचार की श्रेणी में आत्मखोज संबंधी शुभभाव भी आते हैं, अन्य नहीं। उनका वर्गीकरण सात या नौ तत्त्वों के रूप में किया जाता है। वैसे आत्मचिन्तन संबंधी विकल्पों के भी असंख्य भेद हैं, जिन्हें शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है। उक्त कथन भी नास्ति की अपेक्षा से है। आत्मानुभूति प्राप्त करने की प्रक्रिया सद्भावात्मक है, अभावात्मक नहीं। स्थिति यह है कि जिसप्रकार गुमशुदा व्यक्ति की तलाश के लिए पुलिस उसकी बाहरी रूपरेखा (हुलिया) उसको प्रत्यक्ष देखनेवाले व्यक्ति के कथन के आधार पर लिख लेती है और उसके आधार पर उसकी खोज की जाती है तथा जिसप्रकार वैज्ञानिक नई खोज करने के पूर्व एक परिकल्पना करते हैं और उसके आधार पर अपने खोज आरंभ करते हैं; उसीप्रकार आत्मसाक्षात्कार करनेवाले वीतरागी सर्वज्ञ आत्मानुभूति : प्रक्रिया और क्रम महापुरुषों के कथनानुसार आत्मसंबंधी विकल्पात्मक आधार लेकर मुमुक्षु आत्मानुभूति की दिशा की ओर अग्रसर होते हैं। वैज्ञानिक कल्पना और आत्मिक कल्पना में इतना अंतर है कि वैज्ञानिक कल्पना का आधार मात्र बौद्धिक है, अत: वह गलत भी सिद्ध हो सकती है; पर आत्मिक कल्पना बौद्धिक होने के साथ ही शास्त्राधार पर निर्मित होती है; अत: उसके गलत होने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर जबतक हमें आत्मानुभूति नहीं हो जाती, तबतक वह श्रद्धा सम्यक्-श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) नहीं।। यद्यपि वह श्रद्धा आत्मानुभूति प्राप्त पुरुष की भांति नहीं है। तथापि उसमें विकल्पात्मक दृढता की कमी नहीं है। इसके बिना वृत्ति का अन्तरोन्मुखी होना संभव नहीं है। यह एक ऐसी दशा है, जिसे सम्यक् आत्मदर्शन का अभाव है, यह विकल्पात्मक है। सम्यक् न होने पर भी पूर्णत: अविश्वसनीय भी नहीं है। यदि उक्त सविकल्प श्रद्धा अविश्वसनीय हो तो फिर उसके आधार पर आत्मखोज संबंधी कार्य नहीं चलाया जा सकता और यदि उसे पूर्ण श्रद्धा स्वीकार कर ली जावे तो फिर खोज अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त करने की दिशा में बढ़ने की आवश्यकता ही नहीं रहती। अतः उसे वास्तविक श्रद्धा स्वीकार न करते हए भी अश्रद्धा न कहकर व्यवहार श्रद्धा कहा जाता है। किन्तु यह व्यवहार श्रद्धा भी उपचार से है; क्योंकि सच्ची व्यवहार श्रद्धा तो निश्चय श्रद्धा के साथ ही होती है। आत्मानुभूति (निश्चय) पूर्वक, शास्त्राधार पर की गई तर्कसम्मत श्रद्धा ही सच्ची व्यवहार श्रद्धा है। आत्मानुभूति-प्राप्ति के लिए सन्नद्ध पुरुष प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से आत्मा का विकल्पात्मकसम्यक निर्णय करता है। तत्पश्चात् आत्मा की प्रकट-प्रसिद्धि के लिए, पर-प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों से मतिज्ञानत्व को समेट कर आत्माभिमुख करता है तथा अनेक प्रकार के नय पक्षों का अवलम्बन करने वाले विकल्पों से आकुलता उत्पन्न करने वाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी गौण कर श्रुतज्ञान को भी आत्माभिमुख करता हआ विकल्पानभवों को पार कर स्वानभव दशा को प्राप्त हो जाता है। आत्मानुभूति प्राप्त आत्मा की अंतरंग और बाह्य दशा कैसी होती है ह्न इसे अगले निबंध में स्पष्ट करेंगे।
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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