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________________ १० शाकाहार की मांसपेशी खाता है, उसे छूता भी है; वह अनेक जाति के जीव समूह के पिण्ड का घात करता है।" इसका तात्पर्य यह तो नहीं कि आचार्य अमृतचन्द्र और समन्तभद्र के पाठक और श्रोता हमारे पाठकों और श्रोताओं से भी हीन स्तर के रहे होंगे ? निश्चित रूप से उस समय का समाज आज के समाज की अपेक्षा अधिक सात्विक, सदाचारी और निरामिष होगा। फिर भी उन्होंने मांसाहार का विस्तार से निषेध किया। वस्तुतः बात यह है कि जब श्रावकाचार का वर्णन होगा तो उसमें मद्य-मांस-मधु का निषेध होगा ही। हमारे परमपूज्य आचार्यों ने अपने श्रावकाचार संबंधी ग्रंथों में विस्तार से इसकी चर्चा की है। यही कारण है कि आज हमारा समाज शुद्ध शाकाहारी है। ___ आज भी इसकी चर्चा उतनी ही आवश्यक है कि जितनी उस समय थी; क्योंकि समाज में मांसाहार और मद्यपान के विरुद्ध वातावरण बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक है। ___भले ही सीधे मांसाहार का उपयोग हमारी समाज में प्रचलित न हो, पर बहुत से त्रस जीवों का घात तो जाने-अनजाने हम सब से होता ही रहता है। अत: मांसाहार और मद्यपान के निषेध की चर्चा आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। जैन परिभाषा के अनुसार त्रस जीवों के शरीर के अंश का नाम ही मांस है। दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। मांस की उत्पत्ति न केवल त्रस जीवों के घात से होती है, अपितु मांस में निरन्तर ही अनन्त त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। अत: मांस खाने में न केवल उस एक त्रस जीव की हिंसा का दोष है, जिसको मारा गया है; अपितु उन अनन्त त्रस जीवों की हिंसा का अपराध भी है, जो उसमें निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं। अनेक बीमारियों का घर तो मांसाहार है ही।
SR No.009474
Book TitleShakahar Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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