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जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में ]
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार जैसे सुप्रसिद्ध श्रावकाचार ग्रंथों में भी विस्तार से मांसादि भक्षण के दोष बताये गये हैं और उनके त्याग की प्रेरणा दी गई है।
ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि मांसादि के त्याग की चर्चा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की चर्चा के उपरान्त सम्यक्चारित्र के प्रकरण में हुई है। अहिंसाव्रत के संदर्भ में चर्चा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्ध्युपाय नामक ग्रन्थ में बहुत विस्तार से अनेक युक्तियाँ प्रस्तुत करते हुए मांसाहार का निषेध करते हैं। वहाँ कच्चे मांस, पकाये हुए मांस, स्वयंमृत पशु के मांस, मारकर प्राप्त हुए मांस, शाकाहारी पशु के मांस, मांसाहारी पशु के मांस आदि के सेवन का विस्तार से निषेध किया गया है।
उक्त प्रकरण पर प्रकाश डालने वाले पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के कतिपय छन्द मूलतः इसप्रकार हैं
"न विना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्तमात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥ यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥६६॥ आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्मानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥६७॥ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति व पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥६८॥ प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए मांसभक्षी पुरुष के द्वारा हिंसा अनिवार्य है । यद्यपि यह सत्य है कि स्वयंमृत बैल और भैंसे से भी मांस प्राप्त हो सकता है, पर उसमें भी निरन्तर उसी जाति के अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते रहते हैं, उनके मन्थन से - घात से हिंसा होती है। जो कच्ची, पकी हुई किसी भी प्रकार