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________________ समयसार अनुशीलन 346 • ज्ञानानन्दस्वभावी शुद्ध चैतन्य धातुमय भगवान आत्मा का अनुसरण करने से जो शुद्ध परिणमन होता है, उसे सामायिक कहते हैं। तथा राग का अनुसरण करने से जो परिणमन होता है, नपुंसकता है, वह पुरुषार्थ नहीं है। जैसा पाप को छोड़ा, उसीप्रकार पुण्य को भी छोड़कर शुद्धात्मा का अनुसरण करना ही पुरुषार्थ है और यही सामायिक है। देखो, यहाँ व्रत, तप, पूजा, भक्ति आदि शुभभावों को अत्यन्त स्थूल व जड़ कहा है। गाथा ७२ में भी इसे अशुचि, अचेतन व दु:ख का कारण कहा था। इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि शुभराग मोक्ष का कारण नहीं है। आचार्यदेव ने यहाँ शुभभाव को लघुकर्म एवं अशुभभाव को गुरुकर्म कहा है। अशुभ जो गुरुकर्म है, उसे अज्ञानी ने अनेक बार छोड़ा, किन्तु जो लघुहलका स्थूल शुभभाव है, उसको संचित करता रहता है, जबकि दोनों ही कर्म हैं, विकार हैं, दोष हैं। अज्ञानी दोष को दोषरूप न देखकर शुभभावरूप कर्म को ठीक मानकर संतुष्ट चित्त होकर, उसमें मिठास का अनुभव करते हैं। अतः अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति का पुरुषार्थ नहीं करते। इसप्रकार वे स्थूल लक्ष्यवाले होकर समस्त कर्मकाण्ड को मूल से नहीं उखाड़ते। यहाँ तो यह कहते हैं कि अज्ञानी शुभभाव में वर्तता है, इसकारण वह स्थूल लक्ष्यवाला है; क्योंकि सूक्ष्म चैतन्य के लक्ष्य का उसमें अभाव है। ऐसी स्थिति में उसको सामायिक कैसे हो सकती है ? भले ही वह सामायिक की प्रतिज्ञा लेकर बैठ जावे और णमोकार मन्त्र या पंच परमेष्ठी की स्तुति आदि का पाठ करे, पर इनसे क्या? भगवान पंचपरमेष्ठी निज आत्मद्रव्य से भिन्न परद्रव्य हैं और परद्रव्य का स्मरण स्थूल शुभराग है। उस शुभराग से ज्ञान का भवनमात्र सामायिक कैसे हो सकती है ? १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १०७ २. वही, पृष्ठ १०८ ३. वही, पृष्ठ १०८
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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