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________________ 345 गाथा १५४ कारण मानकर व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभकर्मों का मोक्ष के रूप में आश्रय करते हैं।" इस सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण भी द्रष्टव्य है, जो इसप्रकार है - "देखो, आचार्य कहते हैं कि समस्त पाप-पुण्य के भावों के नाश करने से आत्मलाभ की प्राप्ति होती है। यह आत्मोपलब्धि ही मोक्ष है। जगत में कितने ही जीव इस मोक्ष को चाहते हुए भी मोक्ष का कारणभूत जो सामायिक है, उसे नहीं जानते। यह सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाव वाले परमार्थभूत ज्ञान का भवनमात्र है। पूर्णानन्दमय आत्मा का ज्ञान-श्रद्धान व रमणतारूप जो भवन-परिणमन है, वही सामायिक है। ऐसी सामायिक शुभराग के सूक्ष्म विकल्पों के भी अभावरूप है। शुभरागरूप विकल्प सामायिक नहीं हैं। विकल्पमात्र में सामायिक की नास्ति है और सामायिक में विकल्पों की नास्ति है। परमार्थभूत ज्ञान अर्थात् आत्मा का भवनमात्र ही सामायिक है। __सामायिक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाववाले परमार्थभूतज्ञान का भवन मात्र है - एक बात तो यह हुई, दूसरी बात यह है कि वह सामायिक स्वरूप में एकाग्रतारूप है। अपने ध्रुव एक चैतन्यस्वरूप को अग्र (मुख्य) बनाने से आत्मा में जो वीतरागता एवं अतीन्द्रिय आनन्दरूप परिणमन होता है, वह एकाग्रता लक्षणवाला परिणाम ही सामायिक है। जिसे उस सामायिक परिणाम की तो खबर नहीं है और आसन मारकर जमकर बैठ जाने से ऐसा मान ले कि मेरी सामायिक हो गई तो उसकी यह मान्यता मिथ्या है। ___ भाई ! सामायिक तो समयसार स्वरूप है। द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्म से रहित समयसार स्वरूप आत्मा का अनुभव ही सामायिक है। एक सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा के आश्रय से चैतन्य व आनन्दरूप भवनपरिणमन ही सामायिक है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १०५-१०६ २. वही, पृष्ठ १०६ ३. वही, पृष्ठ १०६
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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