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________________ समयसार अनुशीलन 314 पुण्य विशुद्धरूप है।इसप्रकार दोनों में स्वभावभेद भी कहा गया। पाप से कुगति की प्राप्ति होती है और पुण्य से सुगति की प्राप्ति होती है। इसप्रकार फलभेद भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। . इसका समाधान करते हुए कवि कहते हैं कि पापबंध और पुण्यबंध दोनों में मुक्ति नहीं है। कड़वा और मीठा स्वाद भी पुद्गल में देखा जाता है। परिणामों का संक्लेशरूप होना और विशुद्ध होना - यह तो कर्म की सहज चाल है तथा कुगति और सुगति दोनों संसार में ही तो हैं,जगत के जाल ही में तो हैं। हे अज्ञानी जीव! तुझे पुण्य-पाप में जो कारणादि भेद दिखाई देते हैं, वह सब मिथ्यात्व का ही प्रभाव है; क्योंकि इसप्रकार का द्वैतभाव ज्ञानियों की दृष्टि में तो दिखाई ही नहीं देता। पुण्य व पाप दोनों बड़े अंधे कुआ हैं, दोनों ही कर्मबंधरूप हैं; मुक्ति के मार्ग में तो दोनों का ही नाश देखने में आता है। इस कलश पर प्रवचन करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "देखो, वर्तमान में कुछ विद्वानों द्वारा ऐसा कहा जाता है कि ये बाह्य व्रत, तप, भक्ति, पूजा आदि जो व्यवहाररूप शुभ आचरण है, उससे शुद्धता प्रगट होती है। उनके उक्त कथन का इस कलश में स्पष्ट खुलासा है। _ 'अशुभभाव से शुद्धता नहीं होती' - यह तो यथार्थ और सर्वमान्य तथ्य है ही, परन्तु जो शुभभाव के काल में शुभभावों से शुद्धता होना मानते हैं, उनका मानना भी यथार्थ नहीं है। क्योंकि शुभभाव भी अशुभ की तरह ही अशुद्ध हैं। इस कथन के संदर्भ में व्यवहारी जनों का एक प्रश्न यह भी है कि सम्यग्दर्शनरूप निर्विकल्प अनुभव के पहले जो अन्तिम शुभभाव होता है, वह शुभभाव शुद्धभाव का कारण है कि नहीं? इसका समाधान करते हुये आचार्य कहते हैं कि भाई, उस अन्तिम शुभभाव का भी अभाव होकर सम्यग्दर्शन की निर्विकल्प अनुभूति होती है, शुभभाव से नहीं।शुभभाव तो विभावस्वभाव है,जड़स्वभाव है; चैतन्यस्वभाव नहीं है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ३४
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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