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________________ 313 गाथा १४५ ( चौपाई ) कोऊ सिष्य कहै गुरु पाहीं, पाप पुन्न दोऊ सम नाहीं। कारण रस सुभाव फल न्यारे, एक अनिष्ट लगै इक प्यारे ॥ ( सवैया इकतीसा ) संकलेस परिनामनिसौं पाप बंध होइ, विसुद्धसौं पुन्न बंध हेतु-भेद मानियै । पाप के उदै असाता ताकी है कटुक स्वाद, पुन्न उदै साता मिष्ट रसभेद जानिये ॥ पाप संकलेस रूप पुन्न है विसुद्ध रूप, दुहूँको सुभाव भिन्न भेद यों बखानियै । पापसौं कुगति होई पुन्नसौं सुगति होई, ऐसौ फलभेद परतच्छि परमानिये ॥ पाप बंध पुन बंध दुहुँमैं मुकंति नाहिं, कटुक मधुर स्वाद पुग्गलको पेखिए । संकलेश विसुद्ध सहज दोऊ कर्मचाल, कुगति सुगति जगजाल मैं विसेखिए । कारनादि भेद तोहि सूझत मिथ्यात माहि, __ ऐसौ द्वैतभाव ग्यानदृष्टिमैं न लेखिए । दोऊ महा अंधकूप दोऊ कर्मबंधरूप, दुहूंको विनास मोख मारगमें देखिए ॥ . गुरुजी के चरणों के समीप जाकर कोई शिष्य कहता है कि पाप और पुण्य - दोनों समान नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों के कारण, रस, स्वभाव और फल जुदे-जुदे हैं। एक का कारण, रस, स्वभाव और फल अनिष्ट लगता है। और दूसरे का अच्छा लगता है। संक्लेश परिणामों से पाप बंध होता है और विशुद्ध परिणामों से पुण्य बंध होता है। इसप्रकार दोनों में हेतुभेद माना गया है। पाप के उदय में असाता की प्राप्ति होती है और उसका स्वाद कड़वा होता है तथा पुण्य के उदय में साता की प्राप्ति होती है और उसका स्वाद (रस) मीठा होता है। इसप्रकार दोनों रसभेद जानना चाहिए। पाप संक्लेश रूप है और .
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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