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________________ 315 पुण्यपापाधिकार * यहाँ कहते हैं कि शुभ व अशुभ - दोनों ही भाव बन्धन के कारणरूप अशुद्ध भाव हैं, स्वभाव से विपरीत विभाव भाव हैं । भाई! स्वभाव के सन्मुखता का भाव तो शुद्ध चैतन्यमय होता है और ये दोनों भाव चैतन्यरहित अज्ञानमय भाव हैं, इसलिये दोनों ही भेदरहित एक ही जाति के हैं। ___ प्रश्न : क्या मुक्तिमार्ग में व्यवहार का कोई स्थान ही नहीं है? उत्तर : मुक्तिमार्ग में भूमिकानुसार व्यवहार होता तो अवश्य है; व्यवहार होता ही न हो, ऐसा नहीं है; परन्तु व्यवहार से - शुभराग से सम्यग्दर्शन या निश्चय मोक्षमार्ग मानना यथार्थ नहीं है।".. इस प्रकार हम देखते हैं कि टीका और कलश दोनों में ही यह सिद्ध किया गया है कि कारण, स्वभाव, अनुभव और आश्रय-इन चारों की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। यही कारण है कि मुक्ति के मार्ग में पुण्य और पापदोनों ही समान रूप से हेय ही हैं। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ३५ उन रत्नत्रय के धनी परम वीतरागी नग्न-दिगम्बर भावलिंगी सन्तों के प्रति यदि हमारे हृदय में रंचमात्र भी अवज्ञा का भाव रहा तो हम मुक्तिमार्ग से बहुत दूर रहेंगे तथा साथ ही जिनागम में वर्णित गुरु के स्वरूप के अनुरूप जो श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र के धारक नहीं हैं, यदि हमने उन्हें भय, आशा, स्नेह और लोभादिक के कारण गुरु के समान पूजा, पूज्य माना, तब भी हम मुक्तिमार्ग के समीप नहीं आ सकेंगे। ___- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ १२६ - -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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