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________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अनुभव दो प्रकार का होता है। एक तो वह जब उपयोग आत्मसम्मुख होता है, आत्मानुभव होता है, शुद्धोपयोगरूप दशा होती है। आत्मानुभूतिपूर्वक सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति हो जाने के बाद, जब उपयोग बाहर आ जाता है, अन्य शुभाशुभभावों और शुभाशुभ क्रियाओं में लग जाता है; किन्तु अनुभूति के काल में आत्मा में जो अपनापन आया था, आत्मा को निजरूप जाना था, उससे अनंतानुबंधी कषाय के अभावपूर्वक जो शुद्धि प्रगट हुई थी; वह सब कायम रहती है; इसकारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय कायम रहता है, लब्धिज्ञान में आत्मा निजरूप भासित होता रहता है, आत्मा में अपनापन बना रहता है, अनंतानुबंधी कषाय के अभावरूप शुद्धि कायम रहती है। उक्त स्थिति भी अनुभवरूप ही है। इसे हम शुद्धपरिणति भी कह सकते हैं। इसप्रकार अनुभव दो प्रकार का हो गया । एक अनुभूति के काल का अनुभव और दूसरा सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं को निरन्तर रहनेवाला अनुभव । लोक में बोलते हैं न कि मुझे अमुक काम का दस वर्ष का अनुभव है। जब लोग यह कहते हैं कि मुझे एम.ए. कक्षाओं को पढ़ाने का दस वर्ष का अनुभव है तो क्या वे दस वर्ष तक निरन्तर पढ़ाते रहे हैं ? नहीं, पढ़ाना तो माह में कुछ दिनों, घंटे दो घंटे का ही होता है। शेष समय में तो खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना ह्र सभी कुछ चलता है। इसीप्रकार भले ही उपयोग बाह्य पदार्थों में हो, यदि रत्नत्रय कायम है तो वह काल भी एक अपेक्षा से अनुभव का काल ही है। आप कह सकते हैं कि दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है और आप दोनों को अनुभव कह रहे हैं ? अरे, भाई ! ऐसा नहीं है। दोनों स्थितियों में विशेष अन्तर नहीं है; क्योंकि दोनों ही स्थितियों में चौथे गुणस्थान में नहीं बंधनेवाली ४१ प्रकृतियों का बंध नहीं होता और निर्जरा निरन्तर होती रहती है। ऐसा नहीं है कि उक्त प्रकृतियों का बंध मात्र शुद्धोपयोगरूप अनुभव के काल में ही न होता हो और भोजन करते समय, युद्ध करते समय उनका बंधना पहला प्रवचन आरंभ हो जाता हो। इसीप्रकार ऐसा भी नहीं है कि उसे अनुभूति के काल में ही निर्जरा होती हो, भोजनादि के काल में न होती हो। बंध और संवर-निर्जरा की प्रक्रिया का धर्मकांटा करणानुयोग अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में उक्त तथ्य का उद्घाटन करता है। अरे, भाई | बंध न होने और संवर-निर्जरा होने का मूल कारण शुद्धोपयोग के साथ-साथ शुद्धपरिणति भी है। छठवें गुणस्थानवाले मुनिराजों को आहार-विहार और उपदेशादि के काल में शुद्धोपयोग का अभाव होने पर भी पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के आत्मानुभव के काल से भी असंख्य गुणी निर्जरा होती है। उक्त तथ्य से अपरिचित सामान्यजनों की स्थिति तो यह है कि जरा सा पूजा-भक्ति का शुभराग हुआ, दान देने का भाव आ गया तो गलगलियाँ छूटने लगती हैं और वे ऐसा मानने लगते हैं कि हम धर्मात्मा हो गये। ___ अरे, भाई ! इससे तो पुण्य का बंध होता है, बंध का अभाव नहीं, निर्जरा नहीं । उक्त भावों से यह पुण्यात्मा भले ही बन जाय, पर धर्मात्मा नहीं बन सकता; क्योंकि धर्म का आरंभ तो सम्यग्दर्शन से ही होता है। अनुभव के उक्त दूसरे अर्थ के अनुसार टोडरमलजी कहते हैं कि अनुभवी होने से तुम्हें सहजानन्द तो निरंतर है ही; हम तो आपके उक्त सहजानंद की वृद्धि चाहते हैं। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक अनंतानुबंधी कषाय के जाने से आपको सहजानन्द तो है ही, हम तो उसमें वृद्धि चाहते हैं। __ यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान में भी प्रतिसमय, सहजानन्द की वृद्धि हो रही है; तथापि हम चाहते हैं कि आपको अप्रत्याख्यानावरण का अभाव होकर पंचम गुणस्थान प्रगट हो। आप उससे भी आगे बढ़े। नग्न दिगम्बर मुनिदशा को प्राप्त हों। __ आत्मानुभव के काल में वृद्धि होना और वियोगकाल में कमी होना भी सहजानन्द की वृद्धि है। जैसे किसी सम्यग्दृष्टि जीव को छह माह में एक बार क्षणभर के लिए आत्मानुभवरूप दशा होती है। छह माह के
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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