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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का
लग्नपत्रिका तो ब्राह्मण पण्डित पढ़ता था, पर पत्र हमारे पिताजी पढ़ा करते थे । उक्त संदर्भ में उनकी मास्टरी थी, वे बहुत लोकप्रिय थे। मेरी समझ में नहीं आता था कि इसमें ऐसी क्या बात है ? पत्र तो सभी पढ़ सकते हैं, उनसे भी अच्छा पढ़ सकते हैं, पर.... ।
एक बार पिताजी घर पर नहीं थे; अतः यह काम मुझे मिला; क्योंकि शास्त्री होने जा रहा था। पत्र मैंने पढ़ा, पर सबकुछ गड़बड़ हो गया। सभी पंच असंतुष्ट हो गये। इतने में पिताजी आ गये तो सभी लोगों ने अपना असंतोष व्यक्त किया। सभी कहने लगे कि इन्हें तो पत्र पढ़ना आता ही नहीं है। उसी पत्र को पिताजी से दुबारा पढ़वाया गया और सभी वाह-वाह कहने लगे।
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वहाँ तो मैंने कुछ नहीं कहा; पर घर आकर पिताजी से कहा कि आपने जिन लोगों के नाम बोले, वे नाम तो पत्र में थे ही नहीं ।
उन्होंने समझाया उस दोहे में लिखा था कि पत्र पढ़ते समय जो-जो लोग बैठे हों; उन सभी को हमारा जुहारु कहना; सो हमने जो-जो लोग बैठे थे, उनके नाम बोल दिये और कह दिया कि आप सबको जुहारु कहा है।
पिताजी की इसीप्रकार की चतुराई के कारण वे इतने अधिक लोकप्रिय थे।
उस समय चिट्ठियाँ व्यक्तियों को नहीं, समाज को लिखी जाती थीं; व्यक्ति की ओर से नहीं, समाज की ओर से लिखी जाती थीं। शादी की लग्न पत्रिका के साथ जानेवाली चिट्ठी भी लड़कीवालों के गाँव की समाज की ओर से लड़केवाले के गाँव की समाज को लिखी जाती थी।
इसीप्रकार यह रहस्यपूर्णचिट्ठी भी उन सभी आत्मार्थी भाई-बहनों के नाम थी; जो उस काल में मुलतान दिगम्बर जिनमंदिर में चलनेवाली शास्त्रसभा के दैनिक श्रोता थे।
इस पत्र में यह पंक्ति भी ध्यान देने योग्य है, जिसमें लिखा है कि तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए ।
पहला प्रवचन
देखो, यहाँ लौकिक सुखों की कामना नहीं की, अपितु ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न अतीन्द्रिय आनन्द की बात की है। एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति की नहीं, वृद्धि की कामना की है।
आपको अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति हो ह्र ऐसा लिखकर वे सभी साधर्मी भाइयों को अतीन्द्रिय आनन्द के स्वाद से वंचित मानने को तैयार नहीं थे। इसलिए उन्होंने अतीन्द्रिय आनन्द की वृद्धि की कामना की है। द्रिय आनन्द की उत्पत्ति माने संवर, आनन्द की वृद्धि माने निर्जरा और आनन्द की पूर्णता माने मोक्ष |
साधर्मी भाइयों को आनन्द की पूर्णतारूप मोक्ष तो नहीं मान सकते और अभी आनन्द की उत्पत्ति ही नहीं हुई ह्र ऐसा भी मानने को मन नहीं करता । अतः सहजानन्द की वृद्धि की भावना भाना ही उचित है।
पण्डितजी के इस एक वाक्य में सम्पूर्ण समयसार समाहित हो गया है। इसमें कहा गया है कि सहजानन्द की प्राप्ति, वृद्धि और पूर्णता चिदानन्दघन के अनुभव से होती है, ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा के आश्रय से होती है; पर के आश्रय से नहीं, तीर्थों के आश्रय से नहीं, क्रियाकाण्ड के आश्रय से नहीं, पूजा-पाठ से नहीं, दानादिक से नहीं; यहाँ तक कि देवशास्त्र - गुरु के आश्रय से भी नहीं। अरे, भाई ! एक अस्ति में से जितनी भी नास्ति निकालना हो, निकाल लो; जितनी निकाल सकते हो, निकाल लो। एक आत्मा को छोड़कर जिन-जिन के आश्रय से तुमने अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति मान रखी है, उन-उनसे नहीं होती ह्र ऐसा समझ लेना ।
समयसार में भी तो यही है। इससे अतिरिक्त और क्या है ?
पर से भिन्न, पर्याय से पार, ज्ञान और आनन्द का घनपिण्ड त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से, अनुभव से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है। आत्मा के अनुभव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ह्न ये तीनों चीजें शामिल हैं। चौथे गुणस्थान के और उसके ऊपर के गुणस्थानों के सभी जीव अनुभवी हैं।