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________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का वियोगकाल में निरन्तर कमी होते जाना और अनुभूति की स्थिरता के काल में वृद्धि होते जाना ही अनुभूति की वृद्धिंगत दशा है। १० ज्यों-ज्यों आत्मा में शुद्धि की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती जाती है और ज्यों-ज्यों पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती जाती है, त्यों-त्यों आत्मा में शुद्धि की वृद्धि होती जाती है I आत्मा में प्रतिसमय होनेवाली शुद्धि की वृद्धि भावनिर्जरा है और उक्त शुद्धि की वृद्धिपूर्वक कर्मों का झड़ना द्रव्यनिर्जरा है । इसप्रकार हम देखते हैं कि चिदानन्दघन के अनुभव से होनेवाली सहजानन्द की वृद्धि में सम्पूर्ण मोक्षमार्ग समाहित है, समयसार समाहित है। जिसप्रकार समयसार की ६वीं व ७वीं गाथाओं में संक्षेप में सम्पूर्ण समयसार समाहित हो जाता है; उसीप्रकार पण्डित टोडरमलजी की उक्त एक पंक्ति में भी समयसार समाहित हो गया है। समयसार के १५ वें कलश और १६वीं गाथा में भी यही बात है । कहा है ह्र (अनुष्टुभ् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ।। १५ ।। ( हरिगीत ) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये । यह ज्ञान का घनपिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये || बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये । अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये ||१५|| स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुष साध्यभाव और साधकभाव से इस ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की ही उपासना करें। इस कलश का भाव यह है कि जिन पुरुषों में आत्मकल्याण की भावना हो, वे पुरुष चाहे साध्यभाव से करें या साधकभाव से करें; पर उन्हें ज्ञान के घनपिण्ड एकमात्र अपने आत्मा की उपासना करना चाहिए । वह उपासना सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र के सेवनरूप ही है। पहला प्रवचन ११ जैसा कि १६वीं गाथा में कहा है ह्र दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिणि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।। १६ ।। ( हरिगीत ) चारित्र दर्शन ज्ञान को सब साधुजन सेवें सदा | ये तीन ही हैं आतमा बस कहे निश्चयनय सदा ॥ १६ ॥ साधुपुरुष को दर्शन - ज्ञान चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए और उन तीनों को निश्चय से एक आत्मा ही जानो । इसप्रकार हम देखते हैं कि चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि में ज्ञान के घनपिण्ड भगवान आत्मा की उपासना या सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र का सेवन ह्र सबकुछ आ जाता है। यद्यपि पुराने जमाने में यथायोग्य नमस्कार के बाद अत्र कुशलं तत्रास्तु लिखने की परम्परा थी, जिसका अर्थ होता है कि यहाँ कुशलता है और आपके यहाँ भी कुशलता हो ह्न हम ऐसी कामना करते हैं। उसके स्थान पर यहाँ यथासंभव आनन्द है, तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए ह्र वाक्य लिखकर पण्डित टोडरमलजी ने एकप्रकार से सम्पूर्ण मोक्षमार्ग का ही दिग्दर्शन कर दिया है। ज्ञानी की बात-बात में द्वादशांग का सार आ जाता है। सामान्यजनों की स्थिति तो यह है कि कोई लड़का-लड़की उन्हें नमस्कार करे तो वे खुश रहो बेटा, दूधो नहाओ, पूतो फलो, तुम्हारे धंधे - व्यापार में तरक्की हो, न मालूम क्या-क्या कहते हैं ? अरे, भाई ! ये सब पापभाव हैं और यह आशीर्वाद पापभावों की वृद्धि का आशीर्वाद है। रुपया-पैसा परिग्रह है और उसकी वृद्धि परिग्रहरूप पाप की ही वृद्धि है। अरे, भाई ! यह आशीर्वाद है या अभिशाप ? ज्ञानीजनों की वृत्ति तो देखो ! वे तो तुम्हारे चिदानन्दघन के अनुभव से सहजानन्द की वृद्धि चाहिए ह्न इसप्रकार का मंगल आशीर्वाद देते हैं। यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि तुम्हारे चिदानन्दघन के
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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