________________
९२
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का
लिए आगम, अनुमान और परम्परागुरु के उपदेश से प्राप्त ज्ञानको अनुभ से प्रमाणित करना चाहिए; परन्तु अनुभवजन्य ज्ञान को भी जगत के समक्ष प्रस्तुत करते समय आगम के आधार पर सप्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए, प्रबल युक्तियों से उसका समर्थन करना चाहिए, उपयुक्त उदाहरणों के माध्यम से वस्तुस्वरूप को स्पष्ट करना चाहिए। यही राजमार्ग है।
स्वयं के अनुभव को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करना सहज स्वीकृति के लिए उपयुक्त नहीं है ।
आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं कि वस्तुस्वरूप का निर्णय आगम और युक्ति से होता है। शास्त्रों का अध्ययन और ज्ञानी धर्मात्माओं से श्रवण ह्न ये दोनों ही बातें आगम में आ जाती हैं और प्रमाण और नय युक्ति में आ जाते हैं; तर्क और अनुमान भी युक्ति में समाहित हो जाते हैं।
अध्ययन और श्रवण में मूलभूत अन्तर यह है कि ज्ञानियों से तत्त्व श्रवण उतना सुलभ नहीं है कि जितना शास्त्रों के अध्ययन से तत्त्व को समझना है; क्योंकि शास्त्र हमें सभी जगह सहज सुलभ हैं।
यदि हम अपने घर में रात को २ बजे पढ़ना चाहते हैं तो पढ़ सकते हैं; पर ज्ञानी गुरु चाहे जहाँ, चाहे जब उपलब्ध नहीं हो सकते। वे तो एक सुनिश्चित समय पर, सुनिश्चित स्थान पर ही उपलब्ध हो सकते हैं। यही कारण है कि प्रवचनसार में जिनवाणी को नित्यबोधक कहा है।
गुरुजी के समझाते समय यदि तुम्हारा उपयोग भ्रष्ट हो गया या तुम देर से पहुँचे तो फिर तुम्हें वह बात दुबारा सुनने को मिलना सहज नहीं है; पर शास्त्रों को बार-बार पढ़ने की सुविधा सभी को सहज उपलब्ध है। प्रातः पढ़ो, सायं को पढ़ो, दिन में पढ़ो, रात में पढ़ो, जब चाहो तब पढ़ो; मंदिर में पढ़ो, घर पर पढ़ो, रेल में पढ़ो, बस में पढ़ो, हवाई जहाज में पढ़ो, जहाँ चाहो, वहाँ पढ़ो।
इतना सबकुछ होने पर भी जिनवाणी की बात इकतरफी बात है, वनवे ट्रेफिक है। शास्त्रों को आप पढ़ तो सकते हैं, पर उनसे प्रश्न नहीं १. सर्वार्थसिद्धि : अध्याय ९, सूत्र १९ की टीका
छठवाँ प्रवचन
कर सकते, कुछ पूछ नहीं सकते; पर ज्ञानी गुरुओं से विनयपूर्वक प्रश्न करना संभव है, पूछना संभव है।
९३
तथा ज्ञानी गुरु सबकुछ जबान से ही तो नहीं कहते, अपनी आँखों से भी बहुत कुछ कहते हैं; उनके चेहरे के हावभावों से भी बहुत कुछ स्पष्ट होता है; उनके जीवन से भी हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
यह बात शास्त्रों के अध्ययन में नहीं मिलेगी; पर शास्त्रों ने क्षेत्र व काल की दूरी समाप्त कर दी है। हम हजारों वर्ष पहले हुए आचार्यों की बात समझ सकते हैं; हजारों मील दूर बैठे ज्ञानी गुरुओं को भी पढ़ सकते हैं, पर यदि ज्ञानी पुरुषों से कुछ सुनना-समझना है, प्रश्न करना
है तो हमें भी वहीं होना चाहिए, जहाँ वे हैं; उसी समय उपस्थित होना चाहिए, जब वे समझा रहे हों । श्रवण को क्षेत्र और काल की दूरी बरदाश्त नहीं है।
वस्तुत: बात यह है कि अध्ययन और श्रवण ह्न ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी नहीं, पूरक हैं।
इसलिए हमें अध्ययन और श्रवण ह्र दोनों का लाभ लेना चाहिए। दोनों में से किसी की भी उपेक्षा उचित नहीं है।
अतः ऐसी बातें करना समझदारी का काम नहीं है कि जब हमें सद्गुरु का समागम उपलब्ध है तो हम अध्ययन के चक्कर में क्यों पड़े अथवा जब शास्त्रों में सबकुछ है तो फिर गुरुओं के समागम का आग्रह क्यों रखें ?
जिसप्रकार लोक में किसी भी विषय के विशेषज्ञ बनने की चाह रखनेवाले छात्र गुरुओं से अध्ययन के लिए महाविद्यालय में पढ़ने भी जाते हैं और संबंधित पुस्तकों का गहराई से अध्ययन भी करते हैं।
उसीप्रकार आत्मोपलब्धि की भावनावाले आत्मार्थी भाई बहिनों को आत्मस्वरूप के निरूपक शास्त्रों का गहरा अध्ययन भी करना चाहिए और उसके मर्म को ज्ञानी गुरुओं के मुख से भी सुनना चाहिए।
ज्ञानी गुरुओं से आवश्यक प्रश्नोत्तर भी करना चाहिए, अध्ययनश्रवण में उठने वाली शंकाओं का समाधान भी प्राप्त करना चाहिए।