________________
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अध्ययन और श्रवण के बाद चिन्तन की बात आती है; अध्ययन और श्रवण तो आगम के सेवन में आते हैं और युक्ति के अवलम्बन में चिन्तन-मनन की मुख्यता होती है, तर्क-वितर्क की बात होती है, व्याप्ति ज्ञानपूर्वक अनुमान की बात होती है। ___ इसप्रकार आगम और युक्ति से एकदम सही रूप में तत्त्वनिर्णय हो जाने के बाद अनुभव से प्रमाणित करने की बात आती है, आत्मानुभव होता है। सम्यग्दर्शन या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त करने की यही प्रक्रिया है, एकमात्र यही विधि है।
यहाँ यह भी विशेष ध्यान रखने की बात है कि तत्त्वसंबंधी विषयों का अध्ययन, श्रवण, चिन्तन, मनन तो बुद्धिपूर्वक करने की चीज है और अनुभव तो भगवान आत्मा का सही स्वरूप समझ में आ जाने के बाद, उसमें अपनेपन के भाव का अति तीव्र होने से अपने आप होने की चीज है; क्योंकि अनुभव करने के विकल्पों से अनुभव नहीं होता; अपितु इन विकल्पों से पार हो जाने के बाद ही अनुभव होता है।
अब पण्डितजी इसी बात को प्रश्नोत्तरों के माध्यम से आगे बढ़ाते हुए वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ फिर प्रश्न ह्न यदि सविकल्प-निर्विकल्प में जानने का विशेष नहीं है तो अधिक आनन्द कैसे होता है ? ।
उसका समाधान ह सविकल्प दशा में ज्ञान अनेक ज्ञेयों को जाननेरूप प्रवर्त्तता था, निर्विकल्पदशा में केवल आत्मा का ही जानना है; एक तो यह विशेषता है।
दूसरी विशेषता यह है कि जो परिणाम नाना विकल्पों में परिणमित होता था, वह केवल स्वरूप ही से तादात्म्यरूप होकर प्रवृत्त हुआ; दूसरी यह विशेषता हुई।
ऐसी विशेषताएँ होने पर कोई वचनातीत ऐसा अपूर्व आनन्द होता है जो कि विषय सेवन में उसकी जाति का अंश भी नहीं है, इसलिए उस आनन्द को अतीन्द्रिय कहते हैं।" १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४६
छठवाँ प्रवचन
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उक्त कथन के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“धर्मी जीव सविकल्पदशा के समय में आत्मा का स्वरूप जैसा जानता था, निर्विकल्पदशा के समय में भी वैसा ही जानता है, निर्विकल्प दशा में कोई विशेष प्रकार जाना ह्र ऐसी विशेषता नहीं है, फिर भी सविकल्प से निर्विकल्पदशा की बहुत महिमा की गई है ह इसका कारण क्या ? इसमें ऐसी कौनसी विशेषता है कि स्वानुभव की इतनी भारी महिमा शास्त्रों ने गायी है ? यह बात यहाँ दिखाना है।' ___ यद्यपि जितनी वीतरागता हुई है, उतना आत्मिक सुख तो सविकल्प दशा के समय में भी धर्मी को वर्त रहा है; तथापि निर्विकल्पदशा के समय में उपयोग निजस्वरूप में तन्मय होकर जिस अतीन्द्रिय परम आनन्द का वेदन करता है, उसकी कोई खास विशेषता है। अहा ! स्वानुभव का आनन्द क्या चीज है, इसकी अज्ञानी को कल्पना भी नहीं आ सकती। जिसने अतीन्द्रिय चैतन्य को कभी देखा नहीं, जिसने इन्द्रिय-विषयों में ही आनन्द मान रखा है, उसको स्वानुभव के अतीन्द्रिय आनन्द का आभास भी कहाँ से हो सकता है ?
अरे, ऐसे स्वानुभव के आनन्द की चर्चा भी जीव को दुर्लभ है। जिसने अपने ज्ञान को बाह्य-इन्द्रियविषयों में ही भ्रमाया है, कभी ज्ञानी को अन्तर्मुख करके अतीन्द्रिय वस्तु को लक्षगत नहीं किया है, उसे उस अतीन्द्रिय वस्तु के अतीन्द्रिय सुख का अनुमान भी नहीं हो सकता।
शंका ह हम तो गृहस्थ हैं; गृहस्थ को ऐसी स्वानुभव की बात कैसे समझ में आये?
समाधान ह भाई ! स्वानुभव की यह चिट्ठी लिखनेवाले खुद भी गृहस्थ ही थे और जिनके लिए यह चिट्ठी लिखी गई है, वे भी गृहस्थ ही थे; अत: गृहस्थों को समझ में आये, ऐसी यह बात है।'
सम्यग्दर्शन होने के बाद धर्मी का उपयोग कभी स्व में रहता है, कभी पर में रहता है; सततरूप में स्व में उपयोग नहीं रहता; परन्तु सम्यक्त्व तो १. अध्यात्मसंदेश, पृष्ठ ८८ २. वही, पृष्ठ ८९ ३. वही, पृष्ठ ८९-९०