________________
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का आत्मा का अनुभव किसप्रकार होता है ह्न यह बात स्पष्ट करते हुए रहस्यपूर्णचिट्ठी में तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जैनागम में आत्मा का स्वरूप जैसा कहा है; उसे वैसा जानकर, उसमें परिणामों को मग्न करता है; इसलिए यह आगमज्ञान परोक्ष प्रमाण हुआ ।
ध्यान रहे इसमें भी आत्मा ज्ञान में साक्षात् ज्ञात नहीं हुआ है; अपितु शास्त्रों को पढ़कर, गुरुमुख से सुनकर आत्मस्वरूप समझा है और उसमें अपने परिणामों को मग्न किया है।
९०
“मैं आत्मा हूँ; क्योंकि मुझमें ज्ञान है । जहाँ-जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ-वहाँ आत्मा होता है; जैसे सिद्धादिक । जहाँ-जहाँ आत्मा नहीं है, वहाँ-वहाँ ज्ञान भी नहीं है; जैसे मुर्दा । "
ह्न इसप्रकार अनुमान द्वारा वस्तु का निश्यय करके उसमें परिणाम मग्न करता है; इसलिए यह अनुमानरूप परोक्षप्रमाण हुआ। इसमें भी तर्क से युक्ति से आत्मस्वरूप का अनुमान किया गया है, आत्मा को प्रत्यक्ष नहीं जाना है।
आगम-अनुमानादिक द्वारा जो आत्मा जानने में आया; कालान्तर में उसे याद रखकर, उसमें परिणाम मग्न करता है; इसलिए यह स्मृतिरूप परोक्षप्रमाण हुआ ।
इस स्मृति प्रमाण में भी वही आगमज्ञान और अनुमान ज्ञान काम आ रहा है; जो पहले कभी किया गया था और धारणा में विद्यमान था । इसलिए यह भी एक प्रकार से आगमज्ञान और अनुमानज्ञान ही है। गुरुमुख से सुनकर प्राप्त हुआ ज्ञान भी आगमज्ञान में शामिल है।
यह स्मृति इसी भव में किये अध्ययन से, श्रवण से उत्पन्न धारणा की भी हो सकती है और विगत भवों में किये गये अध्ययन-श्रवण से उत्पन्न धारणा की भी हो सकती है।
विगत भव में प्राप्त धारणा की स्मृति को जातिस्मरण कहते हैं; पर दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों स्मृति ही हैं। यदि भेद करना ही हो तो वर्तमान भव में प्राप्त ज्ञान को ही प्रमुखता प्राप्त होगी; पर यह भोला जगत विगत भव की स्मृति से अधिक महिमावंत होता है।
छठवाँ प्रवचन
९१
इस स्मृति प्रमाण में भी धारणा में विद्यमान आत्मवस्तुरूप ज्ञेय का स्मरण किया गया है, आत्मा के साक्षात् दर्शन नहीं हुए हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि अनुभव में आगम, युक्ति, अनुमान, स्मृति आदि परोक्षप्रमाणों द्वारा ही आत्मा का जानना होता है; इसलिए अनुभव मूलतः तो परोक्षप्रमाण ही है।
यद्यपि अनुभव ज्ञान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है; यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र ने आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन और परम्परा गुरु से प्राप्त आत्मज्ञान को अनुभूति प्रमाणित करने का आदेश दिया है'; तथापि आगम, युक्ति और गुरूपदेश की उपेक्षा उचित नहीं है।
उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी तो यहाँ तक कहते हैं कि स्वानुभव में परोक्षप्रमाण द्वारा ही आत्मा का जानना होता है। वहाँ पहले जानना होता है; पश्चात् जो स्वरूप जाना, उसी में परिणाम मग्न होते हैं, परिणाम मग्न होने पर कुछ विशेष जानपना नहीं होता ।
उक्त कथन में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में दो बातों को प्रस्तुत किया है। पहली बात तो यह है कि अनुभव मूलत: परोक्षप्रमाण ही है और दूसरी बात यह है कि अनुभव में कुछ विशेष नया ज्ञेय जानने में नहीं आता ।
तात्पर्य यह है कि करणलब्धि में प्रवेश के पूर्व जो ज्ञान आगम के सेवन, युक्ति के अवलम्बन और गुरु के उपदेश से प्राप्त हुआ था; आत्मानुभूति में उससे कुछ नया जानना नहीं होता ।
इसका स्पष्ट अर्थ यह भी है कि आत्मानुभूति के पहले या बाद में लेखक और प्रवक्ताओं द्वारा जो भी प्रतिपादन होता है; वह सब सर्वज्ञ की वाणी की अनुसार लिखे गये आगमज्ञान के अनुसार ही होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि आत्महित में अनुभव की और जिनवाणी की सुरक्षा में आगमज्ञान की मुख्यता है। तात्पर्य यह है कि आत्महित के
१. समयसार गाथा ५ और उसकी आत्मख्याति टीका