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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का केवलज्ञानरूप पारमार्थिक प्रत्यक्ष तो आत्मानुभव करनेवाले आत्मार्थी को अभी है नहीं; हो नहीं सकता और अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान कदाचित् किसी चतुर्थकालीन भावलिंगी संत को हो तो भी उन अवधिज्ञान
और मन:पर्ययज्ञान के विषय रूपी पदार्थ हैं, पर के मन में स्थित विकल्प हैं; अत: अनुभव प्रत्यक्ष में उनका भी कोई उपयोग संभव नहीं है।
अब मात्र मतिज्ञान और श्रुतज्ञान रहते हैं। भगवान आत्मा का अनुभव करने में मात्र वे ही उपयोगी हैं; पर उन्हें महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में अत्यन्त स्पष्टरूप से परोक्ष कहा है। अतः एक अपेक्षा तो यह है कि आत्मानुभव मूलत: परोक्ष ही है।
उक्त तथ्य को प्रस्तुत करते हुए पण्डित टोडरमलजी ने अनुभवप्रत्यक्ष के संदर्भ में संतुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। ____ मुख्यरूप से पाँच प्रकार के ज्ञानों में प्रत्यक्ष-परोक्ष का बंटवारा सैद्धान्तिक ग्रन्थों में प्रत्यक्षप्रमाण में पारमार्थिक प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष संबंधी बंटवारा तथा परोक्षप्रमाण में मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम संबंधी बंटवारा न्याय ग्रन्थों में तथा अनुभव प्रत्यक्ष संबंधी उल्लेख मुख्यरूप से अध्यात्म ग्रन्थों में पाया जाता है।
ध्यान रहे न्यायशास्त्र में स्वमतमण्डन और परमतखण्डन की, अध्यात्मशास्त्रों में आत्महित की एवं सिद्धान्तशास्त्रों में वस्तुस्वरूप प्रतिपादन की मुख्यता रहती है।
सिद्धान्तशास्त्र संबंधी कथनशैली, न्यायशास्त्र संबंधी कथनशैली और आध्यात्मिक कथनशैली में जो मूलभूत अन्तर होता है, उसके परिणाम स्वरूप ही यह अन्तर दिखाई देता है। ___ स्वानुभवदशा में जो ज्ञान आत्मा को जानता है; वह ज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण में आता है कि परोक्षप्रमाण में ? प्रश्न मूलत: यह है।
उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी का कहना यह है कि क्षयोपशम ज्ञानवाले छद्मस्थ जीवों को जो आत्मानुभव होता है, वह मति-श्रुतज्ञान में ही होता है तथा मति-श्रुतज्ञान परोक्ष हैं। अत: वह अनुभव परोक्षप्रमाण में ही आता है; तथापि अध्यात्मशास्त्रों में आत्मानुभूति को अनुभवप्रत्यक्ष कहा गया है।
छठवाँ प्रवचन
उक्त संदर्भ में रहस्यपूर्णचिट्ठी में जो समाधान सप्रमाण प्रस्तुत किया गया है; उसका संक्षिप्त सार इसप्रकार है ह्र
सबसे पहली बात तो यह है कि स्वानुभवदशा में आत्मा का जानना श्रुतज्ञान में होता है और श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं; इसलिए आत्मानुभव प्रत्यक्ष नहीं, परोक्ष ही है। ___अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान मात्र रूपी पदार्थों को ही जानते हैं
और केवलज्ञान छद्मस्थों को होता नहीं; इसलिए अनुभव में प्रयुक्त ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। __ अनुभव में प्रयुक्त ज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी नहीं हो सकता; क्योंकि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में जैसे नेत्रादिक से साफ-साफ दिखाई देता है; अनुभवज्ञान में आत्मा के असंख्य प्रदेश, अनंत गुण एवं आकारप्रकार वैसे साफ-साफ दिखाई नहीं देते।
तात्पर्य यह है कि पाँच इन्द्रियों के निमित्त से होनेवाले ज्ञान में जितनी व जैसी स्पष्टता, निर्मलता पाई जाती है। वैसी व उतनी भी स्पष्टता आत्मानुभूति के काल में आत्मा को जानने में नहीं होती।
अरे, भाई ! मुझे अपना चेहरा एकदम जैसा साफ-साफ दिखाई दे रहा है; अनुभव के काल में यह भगवान आत्मा वैसा साफ-साफ दिखाई नहीं देता। इसलिए इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी नहीं कह सकते।
लोग कहते हैं कि आज मुझे अनुभव में आत्मा एकदम साफ-साफ दिखाई दिया, एकदम जगमगाता हुआ, प्रकाशमय जगमगज्योतिवाला।
शास्त्र कहते हैं कि आत्मा साफ-साफ दिखाई नहीं देता, पर यह कहता है कि इसे आत्मा साफ-साफ दिखाई दिया। आत्मा में नेत्र इन्द्रिय से पकड़ में आनेवाला पौद्गलिक प्रकाश नहीं होता और इसे आत्मा सूर्य जैसा जगमगाता दिखाई देता है।
क्या कहें ऐसे लोगों के लिए? इन लोगों के विकल्पात्मक ज्ञान में भी अभी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट नहीं है तो फिर निर्विकल्पक अनुभव की बात ही क्या करें?