________________
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का इसतरह निश्चय व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप, निर्विकल्प अनुभव न हो तब भी सम्यग्दृष्टि को सम्यग्दर्शन की विद्यमानता तथा स्वानुभूति के काल में मति-श्रुतज्ञान का अतीन्द्रियपना किसप्रकार है और ऐसा निर्विकल्प स्वानुभव कैसे उद्यम से होता है ह्र ये सब बात बहुत अच्छे ढंग से समझायी है।” ___ रहस्यपूर्णचिट्ठी के उक्त कथन का भाव स्वामीजी के प्रतिपादन में बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है। पण्डितजी का स्पष्ट मत यह है कि जिसे हम अनुभव या अनुभूति कह रहे हैं; वह एक प्रकार से ध्यान ही है क्योंकि उसमें एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान का लक्षण भी घटित होता है।
अपनी बात के समर्थन में वे नाटक समयसार का कवित्त भी प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं कि उक्त अनुभव को विभिन्न अपेक्षाओं से अतीन्द्रिय के साथ-साथ मनजनित भी कहा जा सकता है, कहा जाता है।
उक्त कथनों में विरोध नहीं, विवक्षा भेद है।
इसीप्रकार वे मुल्तानवाले साधर्मी भाइयों के इस तर्क को भी नकार देते हैं कि चूँकि आत्मा अतीन्द्रिय है; अत: वह अतीन्द्रियज्ञान द्वारा ही ग्रहण किया जाना संभव है।
पण्डितजी कहते हैं कि हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि मतिश्रुतज्ञान के विषय छहों द्रव्य और उनकी असर्वपर्यायें हैं। इसलिए भगवान आत्मा मति-श्रुतज्ञान से जाना जा सकता है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो फिर केवलज्ञान होने के पहले आत्मा का जानना संभव नहीं होगा और
आत्मा को जाने बिना, उसमें अपनापन स्थापित किये बिना, उसका ध्यान किये बिना केवलज्ञान का होना संभव नहीं है।
इसप्रकार मुक्ति का मार्ग ही पूर्णतः अवरुद्ध हो जायेगा। १. अध्यात्मसंदेश, पृष्ठ ६९-७०
२. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २६ उनका चित्त चन्दन के समान शीतल (शान्त) हो जाता है। उनमें दीनता नहीं रहती, वे विषय के भिखारी नहीं होते। वे अपने लक्ष्य (आत्मा) को प्राप्त कर लेने से सच्चे लक्षपति (लखपति) होते हैं। साथ ही उनके हृदय में पूर्ण आत्मस्वभाव को प्राप्त करनेवाले सर्वज्ञ वीतरागियों के प्रति अनंत भक्ति का भाव रहता है। मैं कौन हूँ, पृष्ठ-१७-१८
छठवाँ प्रवचन संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में।
वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। रहस्यपूर्णचिट्ठी पर चर्चा चल रही है। विगत प्रवचनों में सविकल्प से निर्विकल्प होने की प्रक्रिया पर मंथन होने के बाद अब प्रत्यक्ष-परोक्ष संबंधी प्रश्नों पर विचार करते हैं।
उक्त संदर्भ में रहस्यपूर्णचिट्ठी में जो समाधान प्रस्तुत किया गया है, वह इसप्रकार है ह्र
"तथा तुमने प्रत्यक्ष-परोक्ष का प्रश्न लिखा सो भाईजी, प्रत्यक्षपरोक्ष तो सम्यक्त्व के भेद हैं नहीं। चौथे गुणस्थान में सिद्धसमान क्षायिकसम्यक्त्व हो जाता है। इसलिए सम्यक्त्व तो केवल यथार्थ श्रद्धानरूप ही है। वह (जीव) शुभाशुभ कार्य करता भी रहता है। इसलिए तुमने जो लिखा था कि ह निश्चयसम्यक्त्व प्रत्यक्ष है और व्यवहारसम्यक्त्व परोक्ष है ह्र सो ऐसा नहीं है।
सम्यक्त्व के तो तीन भेद हैं ह्र वहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व तो निर्मल हैं; क्योंकि वे मिथ्यात्व के उदय से रहित हैं और क्षयोपशमसम्यक्त्व समल है; क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीय के उदय से सहित है।
परन्तु इस सम्यक्त्व में प्रत्यक्ष-परोक्ष के कोई भेद तो नहीं हैं।
क्षायिकसम्यक्त्वी के शुभाशुभरूप प्रवर्तते हुए व स्वानुभवरूप प्रवर्त्तते हुए सम्यक्त्वगुण तो समान ही है; इसलिए सम्यक्त्व के तो प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद नहीं मानना।
तथा प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद हैं, सो प्रमाण सम्यग्ज्ञान है; इसलिए मतिज्ञान-श्रुतज्ञान तो परोक्षप्रमाण हैं, अवधि-मनःपर्ययकेवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। 'आद्ये परोक्षं, प्रत्यक्षमन्यत्' ऐसा सूत्र १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ११-१२