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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का का वचन है तथा तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष-परोक्ष का ऐसा लक्षण कहा है ह्र 'स्पष्टप्रतिभासात्मकं प्रत्यक्षमस्पष्टं परोक्षं।'
जो ज्ञान अपने विषय को निर्मलतारूप स्पष्टतया भलीभाँति जाने सो प्रत्यक्ष और जो स्पष्ट भलीभाँति न जाने सो परोक्ष।
वहाँ मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के विषय तो बहुत हैं, परन्तु एक भी ज्ञेय को सम्पूर्ण नहीं जान सकता; इसलिए परोक्ष कहे और अवधिमन:पर्ययज्ञान के विषय थोड़े हैं; तथापि अपने विषय को स्पष्ट भलीभाँति जानता है; इसलिए एकदेश प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सर्व ज्ञेय को आप स्पष्ट जानता है; इसलिए सर्वप्रत्यक्ष है।
तथा प्रत्यक्ष के दो भेद हैं ह्र एक परमार्थ प्रत्यक्ष, दूसरा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष । वहाँ अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान तो स्पष्ट प्रतिभासरूप हैं ही, इसलिए पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं तथा नेत्रादिक से वर्णादिक को जानते हैं; वहाँ व्यवहार से ऐसा कहते हैं ह्न 'इसने वर्णादिक प्रत्यक्ष जाने', एकदेश निर्मलता भी पाई जाती है, इसलिए इनको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं; परन्तु यदि एक वस्तु में अनेक मिश्र वर्ण हैं, वे नेत्र द्वारा भलीभाँति नहीं ग्रहण किये जाते हैं, इसलिए इसको परमार्थप्रत्यक्ष नहीं कहा जाता है।
तथा परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं ह्र स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम।
वहाँ जो पूर्व काल में जो वस्तु जानी थी; उसे याद करके जानना, उसे स्मृति कहते हैं। दृष्टांत द्वारा वस्तु का निश्चय किया जाये उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। हेतु के विचार युक्त जो ज्ञान, उसे तर्क कहते हैं। हेतु से साध्य वस्तु का जो ज्ञान उसे अनुमान कहते हैं। आगम से जो ज्ञान हो, उसे आगम कहते हैं।
ऐसे प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण के भेद कहे हैं।
वहाँ इस स्वानुभवदशा में जो आत्मा को जाना जाता है. सो श्रुतज्ञान द्वारा जाना जाता है। श्रुतज्ञान है वह मतिज्ञानपूर्वक ही है, वे मतिज्ञान-श्रुतज्ञान परोक्ष कहे हैं; इसलिए यहाँ आत्मा का जानना
छठवाँ प्रवचन प्रत्यक्ष नहीं है। तथा अवधि-मन:पर्यय का विषय रूपी पदार्थ ही है
और केवज्ञान छद्मस्थ के हैं नहीं, इसलिए अनुभव में अवधि-मन:पर्यय केवल द्वारा आत्मा का जानना नहीं है। तथा यहाँ आत्मा को स्पष्ट भलीभाँति नहीं जानता है; इसलिए पारमार्थिक प्रत्यक्षपना तो सम्भव नहीं है।
तथा जैसे नेत्रादिक से वर्णादिक जानते हैं, वैसे एकदेश निर्मलता सहित भी आत्मा के असंख्यात प्रदेशादिक नहीं जानते हैं; इसलिए सांव्यवहारिक प्रत्यक्षपना भी सम्भव नहीं है। ___ यहाँ पर तो आगम-अनुमानादिक परोक्ष ज्ञान से आत्मा का अनुभव होता है। जैनागम में जैसा आत्मा का स्वरूप कहा है, उसे वैसा जानकर उसमें परिणामों को मग्न करता है; इसलिए आगम को परोक्ष प्रमाण कहते हैं। ____ अथवा "मैं आत्मा ही हूँ, क्योंकि मुझमें ज्ञान है; जहाँ-जहाँ ज्ञान है, वहाँ-वहाँ आत्मा है ह्र जैसे सिद्धादिक हैं तथा जहाँ आत्मा नहीं है, वहाँ ज्ञान भी नहीं है ह जैसे मृतक कलेवरादिक हैं।' इसप्रकार अनुमान द्वारा वस्तु का निश्चय करके उसमें परिणाम मग्न करता है; इसलिए अनुमान परोक्ष प्रमाण कहा जाता है।
अथवा आगम-अनुमानादिक द्वारा जो वस्तु जानने में आयी, उसी को याद रखकर उसमें परिणाम मग्न करता है; इसलिए स्मृति कही जाती है।
इत्यादिक प्रकार से स्वानुभव में परोक्षप्रमाण द्वारा ही आत्मा का जानना होता है। वहाँ पहले जानना होता है, पश्चात् जो स्वरूप जाना उसी में परिणाम मग्न होते हैं, परिणाम मग्न होने पर कुछ विशेष जानपना होता नहीं है।"
उक्त प्रकरण का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“सम्यग्दर्शन के प्रत्यक्ष-परोक्ष के बारे में आपने लिखा, परन्तु ऐसा १. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४४-३४६