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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अन्य चिन्ता का निरोध करते हैं, इसलिए इसे मन द्वारा कहते हैं । 'एकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानम्' ऐसा ध्यान का भी लक्षण ऐसे अनुभव दशा में सम्भव है।"
तथा समयसार नाटक के कवित्त में कहा है ह्न
वस्तु विचार ध्यावतैं, मन पावै विश्राम ।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याकौ नाम ।।
इसप्रकार मन बिना जुदे ही परिणाम स्वरूप में प्रवर्त्तित नहीं हुए, इसलिए स्वानुभव को मनजनित भी कहते हैं; अत: अतीन्द्रिय कहने में और मनजनित कहने में कुछ विरोध नहीं है, विवक्षाभेद है ।
तथा तुमने लिखा कि 'आत्मा अतीन्द्रिय है, इसलिए अतीन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण किया जाता है' सो (भाईजी) मन अमूर्तिक का भी ग्रहण करता है, क्योंकि मति श्रुतज्ञान का विषय सर्वद्रव्य कहे हैं। उक्तं च तत्त्वार्थसूत्रे ह्न 'मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । २"
उक्त पंक्तियों का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"अमूर्तिक चिदानन्दस्वभाव के स्वानुभव में इन्द्रिय का तो निमित्त नहीं है; इन्द्रियाँ तो स्पर्शादि मूर्तद्रव्य के ही जानने में निमित्त हो सकती है; अमूर्त आत्मा के जानने में इन्द्रिय का अवलम्बन नहीं है। मन अमूर्त वस्तु को भी जानता है और मन का अवलम्बन अभी सर्वथा नहीं छूटा, क्योंकि अभी मति - श्रुतज्ञान है। अवधि या मन:पर्ययज्ञान का उपयोग स्वानुभव में नहीं होता, स्वानुभव में मति श्रुतज्ञानरूप उपयोग ही रहता है। अवधि व मन:पर्ययज्ञान का विषय भी मूर्त ह्न रूपी ही गिनने में आया है, अरूपी आत्मवस्तु का स्वानुभव तो मति - श्रुतज्ञान द्वारा ही होता है ।
मति श्रुतज्ञान सामान्यतया इन्द्रिय व मन के द्वारा वर्तते होने से यद्यपि इन्हें परोक्ष कहा है; तथापि स्वानुभव के काल में इन्द्रिय का अवलम्बन छूटकर एवं बुद्धिपूर्वक मन का भी अवलम्बन छूटकर अतीन्द्रिय उपयोग हो जाने से इन्हें प्रत्यक्ष भी कहते हैं । केवलज्ञान में १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २६ २. रहस्यपूर्णचिट्ठी : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४४
पाँचवाँ प्रवचन
असंख्य आत्मप्रदेश जैसे प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हैं, वैसे मति श्रुतज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं भासते; फिर भी स्वानुभव में मति श्रुत को प्रत्यक्ष कहा; क्योंकि स्वानुभव के काल में उपयोग आत्मा में एकाग्र होकर, इन्द्रिय व मन के अवलम्बन के बिना अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन साक्षात् करता है। उपयोग अतीन्द्रिय हुए बिना अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन नहीं कर सकता।
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इसप्रकार स्वसंवेदन तो प्रत्यक्ष है, परन्तु केवलज्ञानी की तरह आत्मप्रदेशों का स्पष्ट प्रतिभास न होने की अपेक्षा से परोक्षपना भी है। ऐसा प्रत्यक्ष-परोक्षपना ज्ञान में लागू होता है।
अवधि - मन:पर्यय व केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है; परन्तु इनमें से केवलज्ञान तो साधक के है नहीं; मन:पर्ययज्ञान किसी मुनि के ही होता है; परन्तु मन:पर्यय या अवधिज्ञान स्वानुभव के समय उपयोगरूप नहीं होता । स्वानुभव तो मति-श्रुतज्ञान के द्वारा ही होता है। पहले ज्ञानस्वभाव के अवलम्बन से यथार्थ निर्णय करके, बाद में मति-श्रुत के उपयोग को बाह्य से समेटकर आत्मसन्मुख एकाग्र करने से विज्ञानघन आत्मा आनन्द सहित अनुभव में आता है। यही सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान है।
इस स्वानुभव में जो आनन्द के स्वाद का वेदन है, उसे तो अपने उपयोग से आत्मा सीधा ही अनुभवता है; उस स्वाद का वेदन आगम या अनुमान आदि परोक्षज्ञान के द्वारा नहीं करता; परन्तु अपने ही स्वानुभव प्रत्यक्षज्ञान के द्वारा उसका वेदन करता है, आत्मा स्वयं अपने में उपयोग को एकाग्र करके सीधा ही इस अनुभव के रस को आस्वादता है; अतएव वह अतीन्द्रिय है। यह अनुभव इन्द्रियों से या विकल्पों से पार है।
अनुभव से बाहर आने के बाद जो विकल्प उठें, वे विकल्प भी ज्ञान से भिन्नरूप ही रहते हैं, अनुभवी धर्मात्मा को ज्ञान की व विकल्प की एकता कभी नहीं होती, उसे सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान अविच्छन्नरूप से वर्तते हैं। सम्यक्त्व की व स्वानुभव की दशा ही कोई अलौकिक है। १. अध्यात्मसंदेश, पृष्ठ ६७-६८ २. वही, पृष्ठ ६८