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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का रखते, भक्ष्य - अभक्ष्य का भी विचार नहीं करते; इसके पोषण के लिए करण-अकरणीय सबकुछ करते हैं।
इसका ध्यान रखने के लिए हमें कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ता, सदा सहजभाव से यह हमारे ध्यान का ध्येय बना रहता है।
यदि इस देह से हमारा एकत्व-ममत्व टूट जाये और अपने त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में आ जाय तो हमारा सर्वस्व समर्पण आत्मा के प्रति होने में देर नहीं लगे।
फिर हमें आत्मा का ध्यान करने के लिए प्रयास नहीं करने पड़ेंगे; फिर तो यह भगवान आत्मा हमारे ध्यान का ध्येय सहजभाव से बनेगा । किसी का भी ध्यान करने के लिए अभ्यास करने की जरूरत नहीं होती, जिसमें अपनापन होता है, उसका ध्यान तो सहज ही होता है।
वस्तुत: बात यह है कि धर्म करने की वस्तु नहीं है, होने की वस्तु है। करने और होने के अन्तर को गणित की भाषा में इसप्रकार समझ सकते हैं
होना + अभिमान करना । करना अभिमान होना । होने में अभिमान को जोड़ देने से करना हो जाता है और करने में से अभिमान को निकाल देने से होना रह जाता है।
हम एक ही बात को दो रूपों में प्रस्तुत कर सकते हैं। एक तो वह रूप, जिसमें कदम-कदम पर अभिमान झलकता हो और दूसरा वह रूप, जिसमें अकर्तृत्व का भाव प्रतिबिम्बित होता हो ।
बहुत से लोग कहते हैं कि हम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए क्या करें? प्रतिदिन एक-दो घंटे आत्मा का ध्यान करें। आपके यहाँ इसप्रकार का कोई प्रशिक्षण दिया जाता हो तो बतायें, हम भी उसमें शामिल हो जावें । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए हम कुछ भी करने के लिए तैयार हैं। यदि कुछ खर्च करना पड़े तो हम उसमें भी पीछे नहीं रहेंगे ।
अरे, भाई ! तुम तो वह हो, जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है, जिसके जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और जिसमें लीन होने का नाम सम्यक्चारित्र है, ध्यान है।
कर्तृत्व का यह तीव्रतम विकल्प, यह आकुलता - व्याकुलता ही
पाँचवाँ प्रवचन
सम्यग्दर्शन प्राप्त होने में सबसे बड़ी बाधा है। करने धरने के ये संकल्पविकल्प टूटते ही सम्यग्दर्शन होने में देर नहीं लगेगी। धर्म करने की नहीं, होने की चीज है। यदि करना ही है तो तत्त्वनिर्णय करो, तत्त्वनिर्णय करने का पुरुषार्थ करो, प्रयास करो, स्वाध्याय करो। खर्च करने से सम्यग्दर्शन नहीं होता । सम्यग्दर्शन पैसों से प्राप्त होनेवाली वस्तु नहीं है।
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धर्म में भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग तो एक समझने का मार्ग, ज्ञान का मार्ग है। इसमें देह की क्रिया और रागभाव को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। यह ज्ञानमार्ग तो वीतरागी मार्ग है। यह तो सहज ज्ञाता दृष्टा रहने रूप है।
कुछ लोग तो अत्यन्त दीनभाव से वीतरागी भगवान से भी भोगों की भीख माँगते देखे जाते हैं; उनके सामने गिड़गिड़ाते देखे जाते हैं।
अरे, भाई ! जैनधर्म किसी के सामने गिड़गिड़ाने का धर्म नहीं है; क्योंकि जैनधर्मानुसार तो प्रत्येक आत्मा स्वयं परमात्मा है, स्वयं ज्ञान का घनपिण्ड, आनन्द का रसकंद है, अनंत शक्तियों का संग्रहालय है। ऐसा भगवान आत्मा किसी अन्य के समक्ष सुख की भीख माँगे ह्न यह शोभा नहीं देता ।
यहाँ इस रहस्यपूर्णचिट्ठी में सुखी होने के उपाय के रूप में ही सविकल्प से निर्विकल्प होने की विधि बताई जा रही है ।
सविकल्प से निर्विकल्प की चर्चा के संदर्भ में जो बात कही थी; उसके अन्त में कहा था कि जो ज्ञान इन्द्रियमन में प्रवर्तता था, यद्यपि वही ज्ञान अब अनुभव में प्रवर्तता है; तथापि अनुभव में प्रवर्तित ज्ञान को अतीन्द्रिय कहते हैं।
अब उसी बात को आगे बढ़ाते हुए पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र " तथा इस स्वानुभव को मन द्वारा हुआ भी कहते हैं; क्योंकि इस अनुभव में मतिज्ञान - श्रुतज्ञान ही हैं, अन्य कोई ज्ञान नहीं है।
मति - श्रुतज्ञान इन्द्रिय-मन के अवलम्बन बिना नहीं होता, सो यहाँ इन्द्रिय का तो अभाव ही है; क्योंकि इन्द्रिय का विषय मूर्तिक पदार्थ ही है तथा यहाँ मनज्ञान है; क्योंकि मन का विषय अमूर्तिक पदार्थ भी है, इसलिए यहाँ मन-संबंधी परिणामस्वरूप में एकाग्र होकर