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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का की आवश्यकता नहीं है; तथापि इस महासत्य को जानना भी जरूरी है कि जबतक गौतमस्वामी को दिव्यध्वनि सनने का विकल्प रहा, तबतक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। भगवान महावीर के निर्वाण होने पर विकल्प टूटा नहीं कि उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।
जिनवाणी में समागत कथनों को गंभीरता से समझने की आवश्यकता है। प्रत्येक कथन की अपेक्षा को अत्यन्त सावधानीपूर्वक समझना चाहिए, उसका प्रतिपादन भी अत्यन्त सावधानीपूर्वक किये जाने की आवश्यकता है; अन्यथा स्व-पर की हानि होने की संभावना बनी ही रहती है।
मुक्ति अर्थात् सच्चा सुख प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले मिथ्यात्व नामक कर्म एवं मिथ्यात्व भाव का अभाव करना है। उसके लिए प्रयोजनभूत तत्त्वों का, विशेषकर आत्मतत्त्व का निर्णय करना अत्यन्त आवश्यक है। यह काम मिथ्यात्व की भूमिका में मिथ्यात्व के रहते-रहते ही करना है। इसके लिए निमित्तरूप से एकमात्र जिनवाणी और उसके ज्ञाता गुरु ही शरण हैं। इसलिए करना तो यह चाहिए कि हम जिनवाणी के स्वाध्याय से, उसका मर्म जाननेवाले गुरुओं के सहयोग से तत्त्वनिर्णय करने में जुटे, पूरी शक्ति से इसमें ही अपने उपयोग को लगावें; किन्तु जिन अघातिया कर्मों में फेरफार करने का प्रयास अनन्तवीर्य और अतल्यबल के धनी अरहंत भगवान भी नहीं करते; हम सब उन अघातिया कर्मों और उनके उदय में प्राप्त होनेवाले संयोगों में फेरफार करने के चक्कर में ही उलझे रहते हैं।
यह तो आप जानते ही होंगे कि अनन्तवीर्य उस आत्मबल को कहते हैं कि जो अरहंत भगवान को प्रगट होनेवाले अनंतचतुष्टय में आता है
और अन्तरायकर्म के अभाव में प्रगट होता है तथा तीर्थंकरों को प्राप्त होनेवाले अतुलनीय शारीरिक बल को अतुल्यबल कहते हैं।
ऐसे अनन्तवीर्य और अतुल्यबल के धारी तीर्थंकर अरहंत भी जिन अघातिया कर्मों के नाश का प्रयास नहीं करते; क्योंकि वे तो स्वसमय पर स्वयं नष्ट हो जानेवाले हैं; हम सब उन अघातिया कर्मों के उदय से होनेवाले संयोगों में फेरफार करने के विकल्पों में ही उलझे रहते हैं।
पाँचवाँ प्रवचन
यद्यपि हमारे विकल्पों से इनमें कुछ भी नहीं होता; तथापि सारा जगत इसी दिशा में सक्रिय है।
सम्पूर्ण जगत का निरन्तर यही प्रयास रहता है कि शरीर स्वस्थ रहे, स्त्री-पुत्रादि अनुकूल रहें, भोग सामग्री की अनुकूलता बनी रहे और समाज में प्रतिष्ठा बनी रहे। इन सबकी अनुकूलता में अघातिया कर्म ही निमित्त हैं। इनमें फेरफार की बुद्धि अघातिया कर्मों में फेरफार की बुद्धि है।
इनमें हुए फेरफार से कुछ भी होनेवाला नहीं है। आत्मगुणों के घातक तो घातिया कर्म हैं। घातिया कर्मों में मोहनीय और मोहनीय में भी दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला मिथ्यात्व भाव ही अनंतदुःख का कारण है। इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है।
अरे, भाई ! असली धर्म तो मिथ्यात्व के अभाव का नाम है; अतः हमें पूरी शक्ति से मिथ्यात्व के अभाव का पुरुषार्थ करना चाहिए।
मिथ्यात्व का अभाव करने के लिए सबसे पहले आत्मस्वरूप के निरूपक शास्त्रों को पढ़कर, उनके मर्म को जाननेवाले गुरुओं से सुनकर दृष्टि के विषयभूत, परमध्यान के ध्येय एवं परमशद्धनिश्चयनय के विषयभूत, परमपारिणामिकभावरूप आत्मा को समझना है, विकल्पात्मक ज्ञान में उसका सही स्वरूप जानना है, उसे ही निजरूप मानना है। उसके बाद तीव्रतम आत्मरुचि के वेग से उसी में तन्मय हो जाना है, उसीरूप हो जाना है।
जब किसी वस्तु या व्यक्ति में अपना अपनापन हो जाता है। तब उस व्यक्ति या वस्तु के प्रति हमारा सर्वस्व समर्पण हो जाता है। वह हमारे ज्ञान का ज्ञेय, ध्यान का ध्येय निरन्तर बना रहता है। हम कुछ भी क्यों न कर रहे हों, हमारा ध्यान बार-बार उसकी ओर ही जाता है, जिसमें हमारा अपनापन होता है।
अनादिकाल से हमारा अपनापन अत्यन्त नजदीक के संयोगरूप इस शरीर के प्रति रहा है। यही कारण है कि हमारा ध्यान निरन्तर इसकी अनुकूलता बनाये रखने की ओर ही रहता है। इसके लिए हम सदा सबकुछ करने के लिए तैयार रहते हैं; अच्छे-बुरे का भी ध्यान नहीं