________________
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का सोलहकारण पूजन में भी अरहंतदेव को परमगुरु कहा गया है; जो इसप्रकार है ह्न
दरशविशुद्धिभावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद पाय ।
परमगुरु होय जय-जय नाथ परमगुरु होय ।। हे तीर्थंकर अरहंत भगवान ! आपने दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर पद प्राप्त करके परमगुरु अवस्था अर्थात् अरहंत अवस्था को प्राप्त किया है। आपकी जय हो, जय हो।
सोलहकारण पूजन वस्तुत: सोलहकारण भावनाओं की पूजन नहीं है क्योंकि सोलहकारण भावनायें तो तीर्थंकर प्रकृति के बंध की कारण हैं। जैनदर्शन में बंध के कारणों की पूजा नहीं होती, अपितु बंध के अभाव के कारणरूप रत्नत्रय की और रत्नत्रयधारकों की पूजा होती है। जिसे आप सोलहकारणपूजन कहते हो, वह पूजन उन परमगुरु अरहंतदेव की है, जो सोलह कारण भावनायें भाकर तीर्थंकर पद को प्राप्त हुए हैं। यह बात उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है।
पंचपरमेष्ठियों के वर्गीकरण दो प्रकार से प्राप्त होते हैं। प्रथम वर्गीकरण में अरहंत और सिद्ध को देव तथा आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को गुरु में शामिल किया जाता है। दूसरे वर्गीकरण में मात्र सिद्ध भगवान ही देव हैं और अरहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं।
दूसरे वर्गीकरण का आधार यह है कि आत्मा की पूर्ण अमलअचल सिद्धपर्यायधारी सिद्ध भगवान ही देव हैं; क्योंकि वे हमारे आदर्श हैं, हमें उन जैसा बनना है। अरहंत भगवान चार घातिया कर्मों के सद्भाव में होनेवाले मोह-राग-द्वेष और अल्पज्ञता के अभाव से वीतरागीसर्वज्ञ तो हो गये हैं, अमल तो हो गये हैं; पर अभी अघातिया कर्मों के सद्भाव के कारण अचल नहीं हुए। तात्पर्य यह है कि सिद्ध भगवान अमल होने के साथ-साथ अचल भी हैं, पर अरहंत भगवान अमल तो हैं, पर अचल नहीं।
इसकारण अरहंत भगवान को भी परमगुरु के रूप में गुरुओं में शामिल किया गया है।
पाँचवाँ प्रवचन
६७ सिद्ध भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरती; अत: वे तो हमारे लिए मात्र आदर्श हैं; पर परमगुरु अरहंतदेव की दिव्यध्वनि रिवरती है; अत: वे परमोपकारी परमगुरु हैं।
वस्तुस्वरूप का निर्णय प्रमाण और नयों के द्वारा होता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार के होते हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान मतिज्ञान के ही रूप हैं; क्योंकि इन सभी में मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम निमित्त होता है।
श्रुतज्ञान आगम प्रमाण है। श्रुतज्ञानरूप आगम प्रमाण का आधार परमगुरु अरहंतदेव की वाणी है; इसलिए परमगुरु अरहंतदेव की वाणी के अनुसार ज्ञानीजनों द्वारा लिखे गये शास्त्रों को आगम कहा जाता है।
इसप्रकार परमगुरु अरहंतदेव और परम्परागुरु आचार्यदेव आदि द्वारा प्रतिपादित आगम ही शास्त्र हैं। इसप्रकार शास्त्र और शास्त्रानुसार की गई ज्ञानी गुरुओं की देशना ही वह आधार है: जो हमें विकल्पात्मक ज्ञान में वस्तुतत्त्व का सही स्वरूप समझने में निमित्त है। __ अत: हमने जो आगम के सेवन, युक्ति के अवलंबन और परम्परा गुरुओं के उपदेश से वस्तुस्वरूप का ह्न आत्मवस्तु का निर्णय किया है; वह भी प्रमाण है; स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम भी प्रमाण हैं, प्रमाण के भेद हैं। इन्हीं के आधार पर प्रत्यक्ष अनुभव का मार्ग प्रशस्त होता है।
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि प्रत्यक्ष अनुभव के बिना ये परोक्षज्ञान तो अप्रमाण ही है न?
उत्तर : यद्यपि यह सत्य है कि आत्मानुभव के बिना सम्यग्ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। इसलिए सम्यग्ज्ञान है लक्षण जिसका ऐसा प्रमाण अनुभवहीन ज्ञान कैसे हो सकता है; तथापि आगमज्ञान की प्रामाणिकता तो परमगुरु अरहंतदेव के आधार से है; उसके ज्ञान के आधार से नहीं, जिसे देशनालब्धि प्राप्त हो रही है।
जिस अनुभवज्ञान को प्रत्यक्ष कहा जा रहा है; उसके प्रत्यक्षपने के