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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का अरे, भाई ! विकल्प दो प्रकार के होते हैं। एक तो रागात्मक विकल्प और दूसरे ज्ञान का स्वरूप जो भेद करके जाननेरूप है, उसे भी विकल्प कहते हैं। जहाँ विकल्पों के अभाव या नाश की बात होती है, वहाँ रागात्मक विकल्पों की बात होती है; क्योंकि जो विकल्प ज्ञान के स्वरूप में शामिल हैं, उनका अभाव न तो संभव है और न इष्ट ही ।
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इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव जब सविकल्प से निर्विकल्पदशा को प्राप्त करता है; तब उसको मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय के अभावरूप शुद्धपरिणति, लब्धिज्ञान में आत्मोपलब्धि और उक्त त्रिकाली ध्रुव में अपनेपनरूप सम्यग्दर्शन विद्यमान रहता है; अतः उसमें यह प्रश्न उपस्थित नहीं होता कि वह शुभभावरूप विकल्पों के बल से निर्विकल्प हुआ है; पर सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जब सविकल्प से निर्विकल्प होता है, तब यह प्रश्न उपस्थित होता है; क्योंकि उसके पास श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की निर्मलता का बल नहीं है।
इस आशंका का समाधान करते हुए स्वामीजी कहते हैं कि सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि के तत्त्वविचार में जो ज्ञान का वृद्धिंगत बल है, उससे ही यह कार्य सम्पन्न होता है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित ही है कि पहले भगवान आत्मा का सही स्वरूप विकल्पात्मक ज्ञान में आता है और उसके बाद उसमें अपनेपन के बल से, आत्मरुचि की तीव्रता से ज्ञान का बल बढ़ता है।
बढ़ते हुए ज्ञानबल से विकल्पात्मक निर्णय निर्विकल्प अनुभव में परिणमित हो जाता है।
सविकल्प से निर्विकल्प होने की यही विधि है ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के लिए शुद्धात्मा का अनुभव करना हमारा मूल प्रयोजन है, अत: शुद्धात्मा हमारे लिए प्रयोजनभूत हुआ; इसीलिए शुद्धात्मा को विषय करनेवाला निश्चयनय भूतार्थ है। संयोग व संयोगीभावादि के अनुभव से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति का प्रयोजन सिद्ध न होने से वे अप्रयोजनभूत ठहरे । इसीकारण उन्हें विषय बनानेवाला व्यवहारनय भी अभूतार्थ कहा गया है।
ह्र परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ५७
पाँचवाँ प्रवचन
संतप्त मानस शांत हों, जिनके गुणों के गान में।
वे वर्द्धमान महान जिन, विचरें हमारे ध्यान में ।। पण्डित टोडरमलजी द्वारा लिखित रहस्यपूर्णचिट्ठी पर चर्चा चल रही है। विगत प्रवचन में यह स्पष्ट हो चुका है कि पहले शुद्धात्मतत्त्व के निरूपक शास्त्रों के अध्ययन और उनके मर्म को जाननेवाले गुरुओं के संबोधन से विकल्पात्मक ज्ञान में शुद्धात्मतत्त्व का वास्तविक स्वरूप ख्याल में आता है। उसके बाद वह शुद्धात्मतत्त्व का ज्ञान सविकल्प से निर्विकल्परूप परिणमित होता है। सविकल्प से निर्विकल्प होने की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे सम्पन्न होती है ह्र इसकी चर्चा विस्तार से हो गई है।
अब प्रश्न यह है कि आरंभ में तो आप देव-शास्त्र-गुरु की बात कर रहे थे; पर अन्त में आते-आते मात्र शास्त्रों के अध्ययन और ज्ञानी गुरुओं के श्रवण की बात करने लगे, देव को छोड़ दिया। इसका क्या कारण है ?
अरे, भाई ! तीनों की ही बात है। बात यह है कि इस युग में अरहंत देव का सत्समागम इस क्षेत्र में संभव नहीं है; पर उनकी वाणी शास्त्रों के रूप में हम सभी को सहज ही उपलब्ध है और उसके प्रवक्ता भी कहींकहीं मिल ही जाते हैं। इसलिए शास्त्र और गुरु की बात मुख्य हो गई। दूसरी बात यह भी तो कि अरहंतदेव भी परमगुरु ही हैं; क्योंकि उनकी दिव्यध्वनि खिरती है, वे हमें तत्त्व समझाते हैं।
शास्त्र के पहले बोले जानेवाले मंगलाचरण में आता है “परमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरवे नमः ह्न परमगुरु को नमस्कार हो, परम्पराचार्यगुरु को नमस्कार हो। "
उक्त कथन के अनुसार जब आचार्यदेव परम्परागुरु हैं तो अरहंतदेव के अतिरिक्त और कौन है, जिसे मूलरूप से परमगुरु माना जाय ? शास्त्र और गुरु की प्रामाणिकता का मूल आधार तो परमगुरु अरहंतदेव ही हैं।