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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का यहाँ एक प्रश्न संभव है कि आपने तो कहा था कि सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि या सम्यग्दृष्टि सविकल्पदशा से निर्विकल्पदशा किस प्रकार प्राप्त करते हैं ? पर उत्तर में पण्डित टोडरमलजी की रहस्यपूर्णचिट्ठी का जो अंश उद्धृत किया, उसमें मात्र सम्यग्दृष्टि की ही बात आई है।
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अरे, भाई ! दोनों ही स्थितियों में लगभग एक सी ही प्रक्रिया चलती है; अतः इसमें कोई विरोध नहीं है।
उक्त प्रकरण का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“देखो, यह स्वानुभव की अलौकिक चर्चा ! यहाँ तो एकबार जिसको स्वानुभव हो गया है और फिर से वह निर्विकल्प स्वानुभव करता है, उसकी बात की है; परन्तु पहली बार भी जो निर्विकल्प स्वानुभव का उद्यम करता है, वह भी इसीप्रकार से भेदज्ञान व स्वरूपचिन्तन के अभ्यास द्वारा परिणाम को निजस्वरूप में तल्लीन करके स्वानुभव करता है।
एक बार ऐसा निर्विकल्प अनुभव जिसके हुआ हो, उसके ही निश्चयसम्यक्त्व है ह्र ऐसा जानना । २
देखो तो सही, इसमें चैतन्य की अनुभूति के कितने रस का घोलन हो रहा है ! ऊपर जितना वर्णन किया, वहाँ तक तो अभी सविकल्पदशा है। इस चिन्तन में जो आनन्द - तरंगें उठती हैं, वह निर्विकल्प अनुभूति का आनन्द नहीं है; परन्तु स्वभाव की तरफ के उल्लास का आनन्द है और इसमें स्वभाव की तरफ के अतिशय प्रेम के कारण रोमांच हो उठता है। रोमांच अर्थात् विशेष उल्लास; स्वभाव के प्रति विशेष उत्साह ।
इसके बाद चैतन्यस्वभाव के रस की उग्रता होने पर ये विचार (विकल्प) भी छूट जायें और परिणाम अन्तर्मग्न होकर केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगें, सर्व परिणामस्वरूप में एकाग्र होकर वर्ते उपयोग स्वानुभव में प्रवर्ते ह्न इसी का नाम निर्विकल्प आनन्द का अनुभव है। १. अध्यात्म-सन्देश, पृष्ठ ५०
२. वही, पृष्ठ ५०-५१
३. वही, पृष्ठ ५३
चौथा प्रवचन
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वहाँ दर्शन - ज्ञान - चारित्र संबंधी या नय प्रमाणादि का कोई विचार नहीं रहता, सभी विकल्पों का विलय हो जाता है।'
सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प में आया ह्र ऐसा उपचार से कहा जाता है । स्वरूप के अनुभव का उद्यम करने में प्रथम उसकी सविकल्प विचारधारा चलती है, उसमें सूक्ष्म राग व विकल्प भी होते हैं, परन्तु उस राग को या विकल्प को साधन बनाकर स्वानुभव में नहीं पहुँचा जाता; राग का व विकल्पों का उल्लंघन करके सीधा आत्मस्वभाव का अवलम्बन लेकर उसे ही साधन बनावें, तभी आत्मा का निर्विकल्प स्वानुभव होता है और तभी जीव कृतकृत्य होता है। शास्त्रों में इसका अपार माहात्म्य किया गया है।
'विचार करने में तो विकल्प होता है' ह्र ऐसा समझकर कोई जीव विचारधारा में ही न प्रवर्ते तो कहते हैं कि रे भाई ! विचार में अकेले विकल्प ही तो नहीं है; 'विचार' में साथ-साथ ज्ञान भी तत्त्वनिर्णय का कार्य कर रहा है। अत: इनमें से ज्ञान की मुख्यता कर और विकल्प को दे। ऐसे स्वरूप का अभ्यास करते-करते ज्ञान का बल बढ़ जायेगा, तब विकल्प टूट जायेगा और ज्ञान ही रह जायेगा, अतएव विकल्प से भिन्न ज्ञान अन्तर्मुख होकर स्वानुभव करेगा; परन्तु जो जीव तत्त्व का अन्वेषण ही नहीं करता, आत्मा की विचारधारा ही जो नहीं चलाता, उसे तो निर्विकल्प स्वानुभव कहाँ से होगा। ३”
स्वामीजी के उक्त कथन में अत्यन्त स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जब कोई सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के नाश और सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए आगमानुसार विचार करता है, चिन्तन करता है; तब उसमें अकेले विकल्प ही नहीं रहते, विचार ही नहीं रहते; साथ में ज्ञान भी अत्यन्त सक्रिय रहता है। उक्त प्रक्रिया से ज्ञान का बल बढ़ता है, विकल्प टूट जाते हैं, विचार रुक जाते हैं और ज्ञान निर्विकल्प दशारूप परिणमित हो जाता है।
१. अध्यात्म-सन्देश, पृष्ठ ५३ २. वही, पृष्ठ ५६
३. वही, पृष्ठ ५९