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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का का भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है; वहाँ अनेक प्रकार निजस्वरूप में अहंबुद्धि धरता है ।
चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ ह्र इत्यादिक विचार होने पर सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है; तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट जाय, केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्व परिणाम उस रूप में एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-ज्ञानादिक का व नयप्रमाणादिक का भी विचार विलय हो जाता है।
चैतन्यस्वरूप जो सविकल्प से निश्चय किया था, उस ही में व्याप्य-व्यापकरूप होकर इसप्रकार प्रवर्त्तता है, जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया । सो ऐसी दशा का नाम निर्विकल्प अनुभव है।
बड़े नयचक्र ग्रन्थ में ऐसा ही कहा है ह्र
तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण । णो आराइणसमये पच्चक्खो अणुहवो जह्मा ।। २६६ ।। अर्थ : तत्त्व के अवलोकन (अन्वेषण) का जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्मा को युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने । पश्चात् आराधन समय जो अनुभवकाल उसमें नय-प्रमाण नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है ।
जैसे ह्र रत्न को खरीदने में अनेक विकल्प आते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं; तब विकल्प नहीं है, पहिनने का सुख ही है।
इसप्रकार सविकल्प के द्वारा निर्विकल्प अनुभव होता है। तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मन के द्वारा प्रवर्त्तता था, वह ज्ञान सब ओर से सिमटकर इस निर्विकल्प अनुभव में केवल स्वरूपसन्मुख हुआ; क्योंकि वह ज्ञान क्षयोपशमरूप है; इसलिए एक काल में एक ज्ञेय ही को जानता है, वह ज्ञान स्वरूप जानने को प्रवर्त्तित हुआ तब अन्य का जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक विकार हों तो भी स्वरूप ध्यानी को कुछ खबर नहीं ह्न इसप्रकार मतिज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ। तथा नयादिक के विचार मिटने पर श्रुतज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ ।
ऐसा वर्णन समयसार की टीका आत्मख्याति में है तथा आत्माव
चौथा प्रवचन
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लोकनादि में है । इसीलिए निर्विकल्प अनुभव को अतीन्द्रिय कहते हैं; क्योंकि इन्द्रियों का धर्म तो यह है कि स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द को जानें, वह यहाँ नहीं है; और मन का धर्म यह है कि अनेक विकल्प करे, वह भी यहाँ नहीं है; इसलिए यद्यपि जो ज्ञान इन्द्रिय-मन में प्रवर्त्तता था, वही ज्ञान अब अनुभव में प्रवर्त्तता है; तथापि इस ज्ञान को अतीन्द्रिय कहते हैं। "
उक्त प्रकरण में सविकल्प से निर्विकल्प होने का जो स्वरूप स्पष्ट किया है; उसमें व्यवहार धर्मध्यान और निश्चय धर्मध्यान का स्वरूप भी स्पष्ट हो गया है।
उक्त प्रक्रिया में सर्वप्रथम भेदज्ञान करने को कहा गया है, जिसमें स्त्री- पुत्रादि और शरीररूप नोकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और मोहराग-द्वेषरूप भावकर्मों से रहित ज्ञानानन्दस्वभावी निज आत्मा का स्वरूप, अध्ययन, श्रवण, मनन-चिन्तनपूर्वक जानने की बात कही है।
उक्त प्रक्रिया में चलते-चलते परसंबंधी विकल्प भी टूट जाता है, केवल स्वात्मविचार ही रहता है और विविध प्रकार से अपने में अपनापन स्थापित हो जाता है ।
इसप्रकार की स्थिति में आनंद की तरंगें उठती हैं और आत्मार्थी जीव रोमांचित हो उठता है, विकल्प समूह समाप्त हो जाते हैं और ज्ञानमात्र आत्मा ही प्रतिभासित होने लगता है; आत्मा आत्मामय हो जाता है और ज्ञान - दर्शन और प्रमाण-नय के विकल्प भी विलीन हो जाते हैं; ध्याता, ध्यान और ध्येय के विकल्प भी नहीं रहते हैं।
उक्त कथन को बल प्रदान करने के लिए पण्डित टोडरमलजी नयचक्र का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं और रत्नहार खरीदने व पहिनने का उदाहरण देते हैं । समयसार गाथा १४४ की टीका में समागत मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के आत्मसम्मुख करने की प्रक्रिया की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं।
अन्त में यह भी कहते हैं कि यह अनुभव अतीन्द्रिय अनुभव है। इसी अनुभव को कहीं-कहीं मनजनित भी कह देते हैं; क्योंकि यह समस्त प्रक्रिया मति श्रुतज्ञान में ही सम्पन्न होती है।
१. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ ३४२-३४४