________________
६८
रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का संदर्भ में विशेष स्पष्टीकरण आगे स्वयं पण्डित टोडरमलजी इसी रहस्यपूर्णचिट्ठी में विस्तार से करनेवाले हैं।
जब कोई मैनेजर या मुनीम किसी फर्म (सेठ) की ओर से कोई पत्र लिखता है; तो उस पत्र की विश्वसनीयता फर्म (सेठ) के आधार पर होती है; मैनेजर या मुनीम के आधार पर नहीं। उस पत्र के प्रभाव से होने वाला हानि-लाभ भी फर्म (सेठ) को होता है, मुनीम या मैनेजर को नहीं ।
इसीप्रकार जब कोई व्यक्ति वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन आगमानुसार करता है तो उसकी प्रामाणिकता आगम के आधार से होती है, उस व्यक्ति के आधार से नहीं। इसप्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधुगण तथा ज्ञानी धर्मात्मा ह्न सभी छद्मस्थों द्वारा लिखित या निरूपित वस्तुस्वरूप की प्रामाणिकता का आधार एकमात्र अरहंत सर्वज्ञ परमात्मा और उनकी दिव्यध्वनि ही है ।
जिसप्रकार आज के विज्ञान के अनुसार सूर्य की रोशनी तो स्वयं की है, वह तो स्वयं से ही प्रकाशित है; पर चन्द्रमा की रोशनी स्वयं की नहीं है। जब सूर्य की किरणें उस पर पड़ती हैं, तब वह उनसे प्रकाशित होता है, चमकता है।
उसी प्रकार केवलज्ञानरूपी सूर्य से सम्पन्न अरहंत भगवान तो स्वयं से प्रमाणित हैं। उन्हें अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए किसी दूसरे का प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है; परन्तु शेष सभी छद्मस्थ क्षयोपशम ज्ञानी गणधरदेव, आचार्य, उपाध्याय और साधुवर्ग तथा ज्ञानी धर्मात्मा श्रावकों की बात अरहंत भगवान की दिव्यध्वनि के आधार पर ही प्रमाणित होती है। यही कारण है कि सभी ज्ञानी धर्मात्मा अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए अपने पूर्ववर्ती प्रामाणिक आचार्यों, सन्तों और ज्ञानियों के कथनों को उद्धृत करते हैं।
यहाँ तक कि कुन्दकुन्दाचार्य जैसे समर्थ आचार्य भी ह्न जिणेहिं निद्दिट्टं=जिनेन्द्रदेव ने कहा है; भणिदा खलु सव्वदरसीहिं=सर्वदर्शी जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है ह्न इसप्रकार कहकर अपनी बात की प्रामाणिकता को प्रस्तुत करते हैं।
पाँचवाँ प्रवचन
६९
आजकल कुछ लोग कहने लगे हैं कि आचार्यों की बात ही प्रामाणिक है; गृहस्थ विद्वानों की नहीं। इसप्रकार वे महापण्डित टोडरमलजी जैसे दिग्गज विद्वानों के कथनों की उपेक्षा करना चाहते हैं, उनके कथनों को अप्रमाणिक बताना चाहते हैं; जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।
वे यह नहीं सोचते कि वे स्वयं भी तो विद्वान हैं। क्या उनके कथनों को सही नहीं माना जाय ? यदि हाँ तो फिर उनके इस कथन को भी कैसे स्वीकार किया जा सकता है।
अरे, भाई ! दिव्यध्वनि में समागत, पूर्व परम्परा से प्राप्त जिनागम के सभी कथन यदि वे तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं तो बिना किसी भेदभाव के प्रमाणित ही हैं।
प्रश्न इसप्रकार तो कोई भी कुछ भी लिख देगा; क्या हम उसे भी प्रमाण मानेंगे ?
उत्तर ह्न नहीं, कदापि नहीं; हाँ, यदि वह हमारी प्राप्त परम्परा के अनुसार सही है, तभी स्वीकार होगा।
उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी का मार्गदर्शन इसप्रकार है ह्र
"प्रथम मूल उपदेशदाता तो तीर्थंकर केवली, सो तो सर्वथा मोह के नाश से सर्वकषायों से रहित ही हैं। फिर ग्रंथकर्ता गणधर तथा आचार्य, वे मोह के मंद उदय से सर्व बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को त्यागकर महामंदकषायी हुए हैं; उनके उस मंदकषाय के कारण किंचित् शुभोपयोग ही की प्रवृत्ति पायी जाती है और कुछ प्रयोजन ही नहीं है।
तथा श्रद्धानी गृहस्थ भी कोई ग्रन्थ बनाते हैं वे भी तीव्रकषायी नहीं होते। यदि उनके तीव्र कषाय हो तो सर्व कषायों का जिस तिस प्रकार से नाश करनेवाला जो जिनधर्म उसमें रुचि कैसे होती ?
अथवा जो कोई मोह के उदय से अन्य कार्यों द्वारा कषाय का पोषण करता है तो करो; परन्तु जिन-आज्ञा भंग करके अपनी कषाय का पोषण करे तो जैनीपना नहीं रहता ।
इसप्रकार जिनधर्म में ऐसा तीव्रकषायी कोई नहीं होता जो असत्य पदों की रचना करके पर का और अपना पर्याय- पर्याय में बुरा करे ।