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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का
जब हमारी वेदना असह्य हो गई तो यह सोचकर कि खाकर तो देखे, हमने उस दवा को खा लिया।
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उस दवा ने जादू जैसा असर किया और हमारा दर्द गायब हो गया । अब हमें विश्वास हुआ, पर हमने न तो उस दवा का नाम पूछा था और न उनका पता ।
अतः उनकी खोज में समाचार-पत्रों में विज्ञापन दिया, दूरदर्शन और आकाशवाणी से सूचनायें निकालीं; पर उनका कोई पता नहीं चला ।
जो भी हो, हम तो यह कहना चाहते हैं कि हमें उस दवा को खाने के पहले उस पर विश्वास था या नहीं ? पूरा विश्वास होता तो उसके सामने ही खा लेते; बिल्कुल भी विश्वास न होता तो बाद में भी नहीं खाते।
अतः विश्वास और अविश्वास के बीच कुछ था, पर हम उसे विश्वास ही कहते हैं; क्योंकि विश्वास बिना खाना ही संभव न था; पर जैसा अटूट विश्वास दवा खाने के बाद आराम मिलने पर हुआ, वैसा विश्वास पहले नहीं था ।
इसीप्रकार अनुभव हो जाने के बाद के विश्वास और उसके पहले के विश्वास में अन्तर तो है ही।
आत्मानुभूति के बाद के विश्वास में जो दृढ़ता है, वह दृढ़ता उसके पहले होनेवाले विश्वास में कैसे हो सकती है ? यही कारण है कि उसे सम्यक् श्रद्धान नहीं कहा जा सकता।
इसी बात को हम जरा और गहराई से समझें। हमें कोई भयंकर बीमारी है। उसके इलाज के लिए हमने योग्य डॉक्टर की खोज की, अनेक लोगों से बहुत जानकारी जुटाई, खर्चे की परवाह किये बिना सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर के पास इलाज कराने के लिए पहुँचे। उसने अनेक प्रकार की जाँचें कराईं, उसमें भी हजारों रुपये खर्च हुए। फिर उसने दवा लिखी और कहा कि जैसी विधि हमने बताई है, उस विधि के अनुसार इस दवा को १ माह तक सुबह-शाम लीजिए। एक माह बाद दिखाने को आना । "डॉक्टर साहब इस दवा से मेरी तबियत
हमने डॉक्टर से पूछा ठीक तो हो जायेगी।"
तीसरा प्रवचन
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डॉक्टर ने कहा ह्न “हाँ, हाँ; अवश्य हो जावेगी । चिन्ता न करें। " फिर भी हम कहते रहे ह्न“ डॉक्टर साहब, सचमुच ठीक हो जावेगी ।” डॉक्टर साहब ने नाराज होते हुए कहा ह्न “क्या हम पर विश्वा नहीं है ?"
हम कहने लगे ह्न “क्या बात करते हैं, विश्वास न होता तो आपके पास आते ही क्यों ? क्या हमारे यहाँ डॉक्टर नहीं हैं ? हैं, एक से बढ़कर एक हैं; पर हम उन सबको छोड़कर आपके पास आये हैं। आप पर पूरा भरोसा है; पर.....।”
“पर क्या ?”
“दर्द बहुत है, बरदाश्त नहीं होता; इसलिए बार-बार पूछने का भाव आता है। "
हम घर आ गये, डॉक्टर के बताये अनुसार दवा ली और एक माह में एकदम सही हो गये।
अब जरा सोचिये। जैसा विश्वास अब हुआ, वैसा विश्वास उस समय था क्या ? नहीं, नहीं; क्योंकि होता तो डॉक्टर से बार-बार पूछते नहीं। और विश्वास होता ही नहीं तो उस डॉक्टर के पास जाते ही नहीं, उसके कहे अनुसार जाँचें भी नहीं कराते, दवा भी नहीं खाते; इसलिए इस विश्वास को अविश्वास नहीं कह सकते, कहेंगे तो विश्वास ही, पर आराम होने के बाद जैसा नहीं ।
दोनों विश्वासों के बीच होनेवाले इस अन्तर को हमें जानना ही होगा। दवा खाने और आराम होने के पहले के विश्वास को भी साधारण मत समझिये; क्योंकि उसके भरोसे ही हम डॉक्टर से ऑपरेशन कराने को तैयार होते हैं, ऑपरेशन की टेबल पर खुशी-खुशी लेट जाते हैं और डॉक्टर को जो जैसी चीरफाड़ करनी हो, करने देते हैं। उसके आदेश का अक्षरश: पालन करते हैं; जो दवा वे देते हैं, उसे बिना मीन-मेख किये खाते हैं; जो परहेज वे बताते हैं, उसका पूरी तरह पालन करते हैं।