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रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का इतना सबकुछ बिना मजबूत विश्वास के नहीं हो सकता। उक्त विश्वास के बिना हमारा इलाज होना भी संभव नहीं है।
इसीप्रकार देशनालब्धि के पूर्व देव-शास्त्र-गुरु के प्रति होनेवाले विश्वास में और आत्मानुभूति के उपरान्त होनेवाले विश्वास के अन्तर को भी पहिचानना होगा।
अनुभूति के पहले देव-शास्त्र-गुरु के प्रति होनेवाले विश्वास को अविश्वास तो कह ही नहीं सकते; साथ में उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती; क्योंकि हम उसके भरोसे ही तो सारे जगत से मुख मोड़कर, स्वयं पर समर्पित होते हैं। जिस जगत को आजतक अपना जाना, माना था, उसी में जम रहे थे; उससे मुख मोड़कर, उसे छोड़कर अपने आत्मा में अपनापन स्थापित कर लिया, उस पर ही पूर्णतः समर्पित हो गये ह यह सब कमाल उसी का फल है। अत: उसकी उपेक्षा करना भी समझदारी का काम नहीं।
आगम के अध्ययन, सद्गुरु के उपदेश और तर्क की कसौटी पर कसने के उपरान्त आत्मा-परमात्मा, सात तत्त्व और देव-शास्त्र-गुरु पर जो विश्वास हमें होता है अर्थात् देशनालब्धि से हमें जो विश्वास उत्पन्न होता है; उसके बल पर ही प्रायोग्यलब्धि में प्रवेश होता है, करणलब्धि का प्रारंभ होता है। इसके बिना प्रायोग्य और करणलब्धि में प्रवेश-प्रारंभ संभव नहीं है।
इसीप्रकार देव-शास्त्र-गुरु पर विश्वास बिना आगम का सेवन और गुरूपदेश का श्रवण भी कैसे होगा ?
तात्पर्य यह है कि सम्यक विश्वास-श्रद्धान होने के पहले भी जो विश्वास और श्रद्धान होता हैउसकी उपेक्षा करना उचित नहीं है, संभव भी नहीं है; पर आगमादि के आधार पर होनेवाले विश्वास-श्रद्धान और आत्मानुभूति के उपरान्त होनेवाले विश्वास-श्रद्धान में जो महान अन्तर है, वह तो है ही; उसकी उपेक्षा करना भी ठीक नहीं है।
आप सब अपना काम-धाम छोड़कर यहाँ आ गये हैं, भगवान की पूजा-भक्ति कर रहे हैं, हमारा प्रवचन सुन रहे हैं; क्या यह सब बिना विश्वास के हो रहा है ? इसे हम अश्रद्धा तो नहीं कह सकते; पर जब
तीसरा प्रवचन आपको आत्मानुभूति हो जावेगी और तब आपको हमारी बात पर भी जैसा विश्वास होगा, वैसा आज नहीं हो सकता।
सारा जगत आत्मानुभूति से पहले होनेवाले इस विश्वास को ही व्यवहारसम्यग्दर्शन मानता है; इसी वजह से यह कहता है कि व्यवहारसम्यग्दर्शन पहले होता है और निश्चयसम्यग्दर्शन बाद में।
वस्तुत: बात यह है कि जबतक सम्यग्दर्शन की घातक मिथ्यात्वादि प्रकृतियों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम नहीं होता; तबतक सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता। करणानुयोग के इस कथन की उपेक्षा करना ठीक नहीं है, संभव भी नहीं है।
मिथ्यात्व की भूमिका में होनेवाले उक्त श्रद्धान-ज्ञान को व्यवहार से ही सही, पर सम्यग्दर्शन कैसे कहा जा सकता है ?
वस्तुत: बात यह है कि मिथ्यात्व की भूमिका में आगम और गुरूपदेश के आधार पर होनेवाला श्रद्धान-ज्ञान सही तो है, पर सम्यक नहीं; क्योंकि उसकी सत्यता का आधार तो दिव्यध्वनि के आधार पर रचा गया आगम और ज्ञानी गुरु का ज्ञान है; पर सम्यक्पना का अभाव सम्यक्त्व के सन्मुखमिथ्यादृष्टि में विद्यमान मिथ्यात्व के कारण है।
जिसप्रकार प्रमाण-पत्र की प्रतिलिपि सही तो है, पर जबतक उसे राजपत्रित अधिकारी प्रमाणित नहीं कर देता: तबतक कार्यकारी नहीं है। उसीप्रकार निश्चयसम्यग्दर्शन के पहले होनेवाला व्यवहार सम्यग्दृष्टियों के समान होने पर भी सम्यक नहीं है। क्योंकि उसमें सम्यक्पना निश्चय-सम्यग्दर्शन होने पर ही आयेगा।
मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ कि जिस लड़के से आपने अपनी लड़की की सगाई कर दी, पर अभी शादी नहीं हुई; ऐसी स्थिति में वह लड़का आपका जमाई है या नहीं, आपकी लड़की का पति है या नहीं ? ___ अरे, भाई ! वह लड़का आपकी लड़की का पति कहा जाने पर भी अभी वह पति जैसा व्यवहार नहीं कर सकता। उसीप्रकार यद्यपि करणलब्धिवाला अंतर्महर्त में नियम से सम्यग्दृष्टि होनेवाला है; तथापि उसे अभी सम्यग्दृष्टि नहीं माना जा सकता। अभी तो वह पहले गुणस्थान में ही है।